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अपभ्रंश-भारती-2
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छिटकती, कमलों के बीच क्या हंस वहाँ कलरव नहीं करता या कोई रागयुक्त प्राकृतिक काव्य नहीं पढ़ता या कोकिला ही पंचम स्वर में नहीं गाती अथवा प्रातःकाल में ओससिक्त दक्षिण पवन नहीं चलता और तब यह पूछती है कि हे पथिक । क्या मेरा प्रिय ही तो अरसिक नहीं है । __'सन्देश रासक' में प्रकृति की सुरम्य छटा सर्वत्र है । इसमें प्रकृति का एक ओर यदि स्वाभाविक और मनोरम रूप चित्रित हुआ है तो दूसरी ओर सूची भी प्रस्तुत की गयी है । पथिक ने सामोर नगर का वर्णन करते हुए वहाँ की वनस्पतियों का नाम गिनाया है ।
भरतेश्वर बाहुबलिरास (शालिभद्र)- यह डॉ. दशरथ ओझा द्वारा सम्पादित 'रास और रासान्वयी काव्य' में संकलित है । इसकी रचना 1184 ई. में हुई है । इसकी विशेषता यह है कि देशी भाषा की प्राचीनतम पुस्तकों में से एक है । इसमें दोहा, चउपइ, रासा आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं और कुल मिलाकर 205 छंदों में पुस्तक पूर्ण हुई है । कवि ने ऋषभ जिनेश्वर के चरणों में प्रणति निवेदित करके, सरस्वती का मन में स्मरण करके और गुरु-पद कमल की वंदना करके कथारम्भ किया है । अंत में फल-वर्णन एवं रचना-काल का सकेत है ।
इसमें भरतेश्वर और बाहुबली की प्रसिद्ध कथा कही गयी है । जम्बूद्वीप के अयोध्या नगर में ऋषभ जिनेश्वर की दो रानियाँ सुनन्दा और सुमंगला से क्रमशः बाहुबली और भरत पुत्र हुए । दोनों यशस्वी और पराक्रमी थे । ऋषभेश्वर ने भरत को अयोध्या तथा बाहुबली को तक्षशिला का राज्य सौंप कर वैराग्य ले लिया । जिस दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ उस दिन भरत के अस्त्रागार में एक दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । भरत दिव्य अस्त्र पाकर दिग्विजय के लिए निकला और चक्ररत्न की सहायता से सभी राजाओं को परास्त कर लौटा । किन्तु चक्र अयोध्या के बाहर ही रुक गया । उसके मंत्री ने भाइयों को अविजित छोड़ देने को ही इसका कारण बताया । अतः भरतेश्वर और बाहुबली में युद्ध शुरु हुआ । इन्द्र ने मध्यस्थता करके यह युद्ध बन्द कराया और उनके परामर्शानुसार भरत एवं बाहुबली में वचन-युद्ध, दृष्टि-युद्ध और दण्ड-युद्ध हुए जिनमें बाहुबली की ही विजय हुई । हारने पर भरत ने दिव्य चक्र चला दिया, यद्यपि चक्र बाहुबली का कुछ बिगाड़ नहीं सका तथापि उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के इस व्यवहार से ग्लानि हुई और उन्हें निर्वेद हो गया । भरत ने उनके चरणों में शीश नवाकर क्षमा याचना की पर वे तप करने चले ही गये और उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की ।
नेमिनाथ चउपइ (विनयचन्द्र सूरि) - इसका रचना काल 1296 ई. से 1301 ई. के बीच में अनुमित किया जाता है । इसमें नेमिनाथ और राजुल की अति लोकप्रिय कथा कही गयी है। इस चरित्र पर मध्यकाल के अंत तक खण्ड-काव्य लिखे जाते रहे हैं ।
बीसलदेव रास (नरपति नाल्ह) - 'बीसलदेव रास' प्राचीन हिन्दी-साहित्य की जितनी महत्त्वपूर्ण रचना है, उतनी ही बहुचर्चित भी है । इसकी ऐतिहासिकता एवं इसके पाठ की प्रामाणिकता पर विद्वानों ने पर्याप्त विमर्श किया है । 'बीसलदेव रास' एक उत्तम खण्डकाव्य है और 'संदेश रासक' के पश्चात् प्राङ्मध्यकाल की यह दूसरी काव्य-कृति है जो सभी दृष्टियों से खण्डकाव्य है। इसकी रचना 1343 ई. के आस-पास मानी गयी है । इसके आरम्भ में स्तुति एवं अंत में फलश्रुति है । कथा इस प्रकार है - अजमेर के राजा बीसलदेव का विवाह धार के शासक भोजराज की पुत्री राजमती से हुआ । एक दिन बीसलदेव ने राजमती से गर्वपूर्वक कहा कि मेरे समान दूसरा राजा नहीं है । इस पर राजमती ने उत्तर दिया कि घमंड नहीं करना चाहिए, उसके समान तो अनेक राजे हैं जिनमें से एक तो उड़ीसा का ही राजा है, जिसके राज्य में खानों से हीरे उसी तरह निकलते हैं जिस तरह अजमेर में सांभर से नमक निकलता है । बीसलदेव को यह बात