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________________ 32 अपभ्रंश भारती-2 मनोभावों की अभिव्यक्ति है । अंत में नायक के आगमन की सूचना है, पर कवि नायक-नायिका का मिलन संघटित करने के लिए रुका नहीं है और उसने कथा का द्वार बंद कर लिया है । विजयनगर की एक विरहिणी जिसका पति स्तम्भतीर्थ चला गया था, वियोगानल में जलती हुई अपना समय बिता रही थी । एक दिन स्तम्भतीर्थ जाते हुए एक पथिक को रोक कर उसने गंतव्य और आगमन स्थान पूछा । जब उसने यह जाना कि सामोर से आनेवाला यह पथिक उसी स्तम्भतीर्य को जा रहा है जहाँ उसका पति गया हुआ है, तो उसकी विह्वलता अचानक बढ़ गयी, उसने पथिक से निवेदन किया कि मेरा पति भी मुझे छोड़कर वहीं चला गया है, इसलिए मेरा सन्देश लेते जाओ । उसकी करुणा-विगलित वाणी सुनकर पथिक रुक गया और वियोगिनी अपनी व्यथा की परतें खोल खोलकर रखने लगी । पधिक बीच-बीच में अपनी ऊब प्रकट करता था, किन्तु उसे वियुक्ता का रुदन रुकने के लिए बाध्य कर देता था । अंत में पथिक ने पूछा कि किस ऋतु में तुम्हारा प्रिय तुम्हें छोड़कर चला गया । इस पर विरहिणी ने ग्रीष्म से लेकर छहों ऋतुओं की अपनी दशा का वर्णन सुना दिया । सन्देश लेकर पथिक जाना ही चाहता था कि नायक आता हुआ दिखाई पड़ा । विरह - काव्य की दृष्टि से 'सन्देश रासक' का केवल अपभ्रंश- साहित्य ही में नहीं, बल्कि समग्र हिन्दी साहित्य में अपना महत्त्व है । अत्यन्त क्षीण कथानक पर कवि ने विरह का जो ताना-बाना बुना है, वह अद्भुत है । विरहिणी का तो ऐसा चित्र उतारा गया है कि वह विरह की साकार प्रतिमा हो गयी है । पथिक को देखकर वह इतनी उतावली से उसके पास दौड़ती है कि उसकी कटि से करानी टूटकर गिर जाती है। करधनी में सुदृढ ग्रथि देकर उसने ठीक किया ही था कि उसकी मौक्तिक माला टूटकर बिखर गयी । जैसे-तैसे माला को उसने समेट कर रख लिया और दौड़ी, किन्तु शीघ्र ही उसके नूपुर पैरों में फँसकर छितरा गये। वह विरहोत्कंठिता सम्हलकर उठी ही थी कि उसका शिरोवस्त्र फट गया। उसके ठीक करने के प्रयत्न में उसकी चोली फट गयी । अतः वह अपने कर पल्लव से ही स्तनों को ढँककर पथिक के पास दौड़कर पहुँची। इस चित्र में नायिका का उतावलापन और उसकी दीन-दशा फूटी पड़ती है । फिर उसने प्रिय को जो सन्देश भेजा है उसमें मनोवैज्ञानिक सूझ द्रष्टव्य है। सच्चा पुरुष चुनौती सहन नहीं करता । और पुरुष के लिए इससे बड़ी ललकार क्या हो सकती है कि उसकी योग्य वस्तु के दूसरा कोई हाथ लगाये ? अतः सन्देश में विरहिणी अपने प्रिय के पुरुषत्व को उभारने का प्रयत्न करती है । वह कहती है कि तुम्हारे जैसे पौरुषवान पति के रहते हुए भी मुझे पराभव सहन करना पड़ रहा है, क्योंकि जिन अंगों के साथ तुमने विलास किया है, वे अ विरहानल के ग्रास हो रहे हैं । सन्देश के साथ विरहिणी का हृदय भी कढ़ कर आने लगता है, वह बिलख-बिलख कर रोने लगती है और इतना रोती है कि वह पथिक की सहन-शक्ति के परे हो जाता है । तब पथिक कातर होकर कहता है कि देवी जैसे भी हो अपने आँसुओं को रोको और रोकर यात्री का अमंगल न करो। इस पर विरहिणी जो उत्तर देती है उसमें उसकी दीनता मूर्त हो उठी है। वह अपने प्रिय के लिए तब अन्तिम सन्देश देती है कि मेरे हृदयरूपी रत्नाकर को तुम्हारे प्रेम के गुरु मंदर ने मथकर सभी सुख रत्नों को निकाल लिया है । उसकी इस उक्ति में मात्र रूपक का चमत्कार नहीं बल्कि मर्म को छू देनेवाली पीड़ा भी है । - इस पीड़ा को खोजते खोजते वह अपने प्रिय की अरसिकता तक पहुँच जाती है । वह पथिक से पूछती है कि जिस देश में मेरा प्रिय रहता है क्या वहाँ चन्द्रमा की शीतल शुभ्र ज्योत्स्ना नहीं
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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