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________________ अपभ्रंश-भारती-2 21 प्राप्त रासकाव्यों के आधार पर यह सहज में कहा जा सकता है कि इस काव्यरूप का प्रयोग प्रबन्ध और खण्डकाव्यों के रूप में हुआ है । ऐसी स्थिति में रासकाव्य की समानता 'चरिउ' काव्यरूप के साथ सहज में की जा सकती है । रासकाव्यों का पहले प्रणयन अपभ्रंश और गुर्जर मिश्रित राजस्थानी भाषा में हुआ था । इस काव्यरूप के प्रवर्तन का श्रेय जैनाचार्यों को रहा है। डॉ. अम्बादत्त पन्त स्वरचित 'अपभ्रंश काव्य-परम्परा और विद्यापति ग्रंथ में 'उपदेश रसायन रास' को प्रमुख रचना मानते हैं । इस रास के रचयिता हैं - जिनदत्त सूरि । अपभ्रंश भाषा में रासकाव्य रचने की एक सुदीर्घ परम्परा रही है । कविवर विनयचन्द्र कृत चूनड़ीरास, भगवतीदास रचित ढाडाणारास, आदित्यरास, पखवाड़ारास, दशलक्षणरास, समाधिरास, जोगीरास, मनकरहारास, रोहिणीव्रतरास, कवि योगदेवकृत बारस अणुवेक्खारास, जिनहर्षकृत उत्तमकुमाररास, सूरविनयकृत रत्नपाल-रत्नावलीरास, जयविमलकृत जम्बूस्वामीरास तथा ऋषभदास विरचित हरिसूरिरास उल्लेखनीय अपभ्रंशरासकाव्य हैं । हिन्दी में रास काव्यरूप रासक, रासो के रूप में व्यवहृत हुआ है । नाट्य-लोक में नृत्य और संगीत की प्रमुखता के कारण शृंगारप्रधान धारा लोकप्रसिद्ध और प्रचलित हो गयी । 'हिन्दी साहित्य कोश' प्रथम भाग में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने पृष्ठ 713 पर स्पष्ट किया कि सोलहवीं शताब्दी में बल्लभाचार्य तथा हितहरिवंश ने इसी काव्यरूप में धर्म के अंग के साथ नृत्य की पुनः स्थापना की। इस प्रकार रास नामक काव्यरूप फिर नाट्यरूप पा गया । हिन्दी में इस लोकप्रिय रासकाव्य को अपनाकर आश्रयदाताओं से सम्बन्धित अनेक रासकाव्यों की सर्जना की गई है । पृथ्वीराजरासो, खुमाणरासो आदि । खण्डकाव्य की श्रेणी में बीसलदेवरासो वस्तुतः उल्लेखनीय काव्य है । अपभ्रंश के उत्तरार्ध और हिन्दी के आदिकाल में जैनेतर कविर्मनीषी अब्दुलरहमान प्रणीत रासकाव्यरूप में 'सन्देश रासक' नामक कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अपभ्रंश का रासकाव्यरूप हिन्दी के जैन कवियों द्वारा आरम्भ से ही व्यवहृत हुआ है । अपभ्रंश की प्रबंधात्मक काव्याभिव्यक्ति के लिए 'चरिउ' नामक काव्यरूप का प्रयोग प्रचुर परिमाण में हुआ है । चरितकाव्य की कुछ निजी विशेषताएँ हैं जिनके कारण वह पुराण, इतिहास र कथा से भिन्न तथा एक विशेष प्रकार का प्रबंध काव्य माना जाता है । संस्कृत में चार शैलियों के प्रबन्ध काव्य मिलते हैं- 1. शास्त्रीय शैली 2. ऐतिहासिक शैली 3. पौराणिक शैली और 4.रोमासिक शैली । इनमें से प्रथम के अतिरिक्त शेष तीन शैलियों में चरित काव्य होते हैं । अपभ्रंश में पौराणिक और रोमासिक इन दो ही शैलियों के प्रबन्ध काव्य मिलते हैं और वे सभी चरित काव्य हैं । पउमचरिउ की भूमिका में श्री हरिबल्लभ भयाणी अपनी मान्यता इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि - स्वरूप की दृष्टि से अपभ्रंश के पौराणिक काव्यों और चरित काव्यों में बहुत अन्तर नहीं है । पौराणिक काव्यों में विषय का विस्तार बहुत अधिक होने से संधि अर्थात् सर्ग संख्या पचास से सवा सौ तक होती है, किन्तु चरित काव्यों में विषय-विस्तार मर्यादित होता है जिससे सर्ग या सधि संख्या अधिक नहीं होती । शेष बातों जैसे संधि, कड़वक, तुक, पक्ति-युगल आदि में दोनों में कोई भेद नहीं होता । अपभ्रंश में चरिउ काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है । स्वयम्भूकृत पउमचरिउ, रिट्रणेमिचरिउ, सोद्धयचरिउ तथा पंचमिचरिउ, पुष्पदन्त विरचित णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ, वीरकवि का जंबूस्वामिचरिउ, श्रीधर प्रणीत पासनाहचरिउ तथा वड्ढमाणचरिउ, देवसेन प्रणीत
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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