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अपभ्रंश-भारती-2
काव्यशास्त्रीय निकष पर काव्याभिव्यक्ति जिन काव्यरूपों में हुई है उन्हें दो मुख्य रूपों में विभक्त किया गया है । प्रथम रूप है प्रबन्ध और द्वितीय रूप मुक्तक है । अपभ्रंश की प्रबन्धात्मक काव्याभिव्यक्ति पुराण, चरिउ तथा खण्डकाव्यों में प्रभूत परिमाण में हुई है।
अपभ्रंश का परम पुष्ट काव्यरूप है - पुराण । पुराण काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा अपभ्रंश साहित्य में रही है जिसमें प्रेसठ शलाका पुरुषों के जीवन-चरित्र वस्तुतः रचे गए हैं । चौबीस तीर्थंकर - ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यन्त, द्वादश चक्रवर्ती - भरत से लेकर ब्रह्मदत्तपर्यन्त, नव वासुदेव - त्रिपुष्ट से लेकर कृष्णपर्यन्त, नव बलदेव - विजय से लेकर राम-बलरामपर्यन्त तथा नव प्रतिवासुदेव - सुग्रीव से लेकर जरासंधपर्यन्त मिलकर श्रेसठ शलाका पुरुष के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं । जैनाचार्यों ने इस भाव-सम्पदा का मूल स्रोत प्रथमानुयोग में माना है । महाकवि स्वयम्भू और महाकवि पुष्पदन्त के विशाल काव्य इसी काव्यरूप में रचे गए
हिन्दी में यह काव्यरूप अपने मौलिक रूप-पुराण में अवतरित हुआ है । हिन्दी के मध्यकाल के महाकवि भधरदास द्वारा प्रणीत 'पावपुराण' नामक महाकाव्य वस्तुतः उल्लेखनीय है। इसी परम्परा में कविवर भागचन्द्र द्वारा रचित नेमिनाथपुराण, खुशालचन्द्र काला द्वारा प्रणीत हरिवंशपुराण एवं पद्मपुराण इस काव्यरूप की परम्परा को गति प्रदान करते हैं ।
___ पुराणों की भाँति प्रबन्धात्मक काव्यरूप है - कहा । यह काव्यरूप निश्चितरूप से महाकाव्य की कोटि में रखा जा सकता है । "हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप तथा विकास' नामक स्वरचित ग्रंथ में डॉ. शम्भूनाथ सिंह स्वीकारते हैं कि कहा अथवा कथा काव्यरूप में प्रायः सभी काव्योपम गुण मिलते हैं । अपभ्रंश काव्य में 'सुयशपंचमीकहा' जैसे अनेक काव्य रचे गए हैं। महाकवि धनपाल द्वारा रचित भविसयत्तकहा, कविवर लाखू द्वारा प्रणीत चन्दणछट्टीकहा तथा जिणयत्तकहा, उदयचन्द्र रचित सुअंधदहमीकहा, बालचंद द्वारा प्रणीत णिदुक्खसत्तमीकहा अर्थात् निर्दुःखसप्तमी व्रतकथा तथा नरक उतारी दुधारसी कथा, महाकवि रइधू के पुण्याश्रव कहा तथा अणथमिउ कहा, कविवर विमलकीर्ति प्रणीत सोखवइविहाण कहा, भट्टारक गुणभद्र द्वारा रचित सयणवार सिविहाण कहा, पक्खवइवय कहा, आयासपंचमी कहा, चंदायणवयकहा, चंदणछट्ठीकहा, नरक-उतारी दुग्धारस कहा, णिदुक्खसत्तमी कहा, मउडसत्तमी कहा, पुष्फंजली कहा, रयणत्तयवय कहा, दहलक्खणवय कहा, अणंतवय कहा लद्धिविहाण कहा, सोलहकारणवय कहा तथा सुगंध दहमी कहा, हरिचन्द्र रचित अणत्थमिय कहा, तथा माणिकचन्द द्वारा प्रणीत सत्तवसण कहा आदि अनेक कहा काव्यरूप में रचित काव्य उपलब्ध
'कहा' अथवा कथा काव्यरूप हिन्दी में अपभ्रंश से ही गृहीत किया गया । हिन्दी में कविवर किशनसिंह द्वारा रात्रिभोजनत्यागवत कहा, कविवर भाऊ रचित रविव्रत कथा, खुशालचन्द्र काला द्वारा प्रणीत व्रतकहाकोश उल्लेखनीय है । इसी प्रकार कविवर जोधराज गोदीका द्वारा 'कहाकोश' द्रष्टव्य है ।
अपभ्रंश भाषा का अन्यतम सशक्त काव्यरूप है - रास । आरम्भ में 'रास' एक सामूहिक गीत नृत्य रहा होगा किन्तु कालान्तर में वह गेय रूपक के रूप में विकसित हुआ और तब से प्रबन्धशैली के रूप में रास रचा गया । अपभ्रंश भाषा और साहित्य में डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन की मान्यता है कि रास जब लोक-परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है तब उसका नाट्यरूप मुखर हो उठता है और जब वह साहित्यिक परम्परा में व्यवहृत होता है तब उसका रूप प्रबन्धात्मक हो जाता है।