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अपभ्रंश-भारती-2
जुलाई, 1992
अपभ्रंश के कतिपय काव्यरूप और उनका
हिन्दी पर प्रभाव
• डॉ. महेन्द्रसागर प्रचडिया
___ मनुष्य भाव-प्रधान प्राणी है । भावाभिव्यक्ति करना उसकी स्वयंजात शक्ति है । साहित्यिक भाषा में उसकी आदिम अभिव्यक्ति प्राकृत और संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है । प्राकृत और संस्कृत के बीच की कड़ी का नाम है - अपभ्रंश । अपभ्रंश का जन्म-स्थान है - लोक । अपभ्रंश की भावसम्पदा लौकिक, उसके काव्यरूप और छंद भी लोकाश्रित रहे हैं । कल्याणकारी बातों के अतिरिक्त जन-मानस को जागतिक और आध्यात्मिक आनन्द से आप्लावित करनेवाले नाना संदों और प्रसंगों की अभिव्यक्ति अपभ्रंश भाषा में हुई है ।
अपभ्रंश वाङ्मय का भाव और रूप लोक-मानस की अक्षय निधि है । हिन्दी को जन्म देकर अपभ्रंश अपनी साहित्यिक धरोहर को विरासत में सौंपती है । इस प्रकार मानवी भावाभिव्यंजना की सुदीर्घ परम्परा अपभ्रंश से होकर हिन्दी साहित्य-धारा में समाहित हुई है । अपभ्रंश की रूप-राशि में काव्यरूप का स्थान महत्त्वपूर्ण है । यहाँ उसके कतिपय काव्यरूपों के मौलिक स्वरूप की चर्चा करना तथा उनका हिन्दी पर प्रभाव-विषयक चर्चा करना हमारा मूल अभिप्रेत रहा है ।
अपभ्रंश वाङ्मय की अभिव्यक्ति शताधिक काव्यरूपों में हुई है । उन सभी काव्यरूपों में कतिपय ऐसे काव्यरूप भी हैं जो अपभ्रंश की सुदीर्घ परम्परा में आदि से अन्त तक चिरंजीवी रहे हैं । साथ ही ऐसे अनेक काव्यरूप अपभ्रंश की कोख से जन्मी हिन्दी काव्यधारा को निरन्तर प्रवहमान करते हैं ।