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अपभ्रंश-भारती-2
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, अपभ्रंश काव्य को संस्कृत काव्य की जो परम्परा उत्तराधिकार में प्राप्त हुई, वह रूढ़िगत तो हो ही चुकी थी, साथ ही एक ऐसे युग को पार कर आयी थी, जो संसार को दुःखमय मानने का दर्शन दे चुका था । जीवन की देशकालगत परिस्थितियों ने इस साहित्य-परम्परा को इतना अवकाश नहीं दिया कि वह अपनी कठोर सीमाओं को कुछ कोमल कर सकती । परन्तु जिस प्रकार जीवन के लिए यह सत्य है कि वह अंश-अंश में पराजित होने पर भी सर्वांश में कभी पराजित नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति भी अपराजित ही रही है । हर नवीन युग की भावभूमि पर वह ऐसे नये रूप में आविर्भूत होती रहती है जो न सर्वतः नवीन है और न पुरातन ।
काव्य में प्रकृति-वर्णन दो रूपों में पाया जाता है । प्रकृति का स्वतंत्र, आलंबन रूप में और नायक-नायिका के भावों के उत्तेजक रूप में । बाह्य प्रकृति का प्रभाव हमारी अंतःप्रकृति पर अपने आप पड़ता है । किन्तु अपभ्रंश काव्य के उदय काल में प्रकृति के इस स्वच्छंद वर्णन की प्रणाली समाप्तप्रायः हो चुकी थी । मध्यकालीन संस्कृत कवियों ने साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र की भाँति प्रकृति-वर्णन में भी बैंधी-बधाई परिपाटी का ही अनुसरण किया है । आरम्भिक अपभ्रंश कविता के लिए अपने समकालीन संस्कृत साहित्य से प्रभावित होना अनिवार्य था । फलतः तत्कालीन अपभ्रंश कविता में भी स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन का अभाव है । इन कवियों की कल्पना प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण में वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि की भाँति ऐसे रूपों की योजना करने में नहीं प्रवृत्त होती थी, जिनसे किसी दृश्य का पूर्ण चित्र आँखों के सामने उपस्थित हो और जो चित्र स्वतंत्ररूप से स्वयं पाठक या श्रोता के भाव के आलंबन हों ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का अनुमान है कि कालिदास के समय से या उसके कुछ पहले ही से दृश्य-वर्णन के संबंध में कवियों ने दो मार्ग निकाले । स्थल-वर्णन में तो वस्तु-वर्णन की सूक्ष्मता बहुत दिनों तक बनी रही पर ऋतु-वर्णन में चित्रण उतना आवश्यक नहीं समझा गया, जितना कुछ इनी-गिनी वस्तुओं का कथनमात्र करके भावों के उद्दीपन का वर्णन ।1 शुक्लजी ने आगे लिखा है कि 'जान पड़ता है ऋतु-वर्णन वैसे ही फुटकर पद्यों के रूप में पढ़ा जाने लगा, जैसा बारहमासा पढ़ा जाता है । अतः उनमें अनुप्रास और शब्दों के माधुर्य आदि का ध्यान अधिक रहने लगा ।' संस्कृत साहित्य में ऋतु-वर्णन सबसे पहले शायद 'ऋतुसंहार' में ही मिलता है। उसमें कालिदास ने इतर स्थलों की भाँति शुद्ध प्रकृति-वर्णन नहीं किया है, अपितु विविध वस्तुओं में प्रकृति का उद्दीपन रूप चित्रित किया है और उसे मनुष्यों के केलिविलास के ही संदर्भ में देखा है । 'मेघदूत' के प्रकृति-चित्रण और 'ऋतुसंहार' के प्रकृति-चित्रण में उद्देश्यभिन्नता स्पष्ट है ।
कभी-कभी कवियों ने एक साथ ही सभी ऋतुओं का वर्णन विशिष्ट पद्धति में न करके यथावसर पात्रों के मुँह से ऋतुसौन्दर्य का उद्घाटन करवाया है । कहीं-कहीं इस प्रकार के वर्णन इतने सुन्दर और स्वाभाविक हैं कि वे स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन से कम अच्छे नहीं हैं । राजशेखर की कपरमंजरी में इस प्रकार के कई सुन्दर प्राकृत श्लोक मिलते हैं ।
महाकाव्यों में तो अधिक अवकाश होने और लक्षण-पालन के लिए स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन के लिए थोड़ा-बहुत बहाना मिल जाता था - स्वयंभूदेव विरचित 'पउमचरिउ में महान् इन्द्रधनुष को हाथ में लेकर मेघरूपी गज पर सवार होकर पावसराज ने ग्रीष्मराज पर चढ़ाई कर दी । दोनों राजाओं के युद्ध का वर्णन बड़ा सरस बन पड़ा है -
धग धग धग धगंतु उद्धाइउ, हस हस हस हसतु संपाइउ । जल जल जल जलतु पजलतउ, जालावलि फुलिंग मेल्लतउ ।