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धूमावलि धयदंडुब्भेप्पिणु, वरवाउलिखग्गु कड्डेप्पिणु । झड झड झड झडंतु पहरंतउ, तरुवर रिउ भड भज्जतउ । मेहमहागयघड विहडतउ, ज उण्हालउ दिट्टु भिडंतउ । धणु अप्फालिउ पाउसेण, तडि टंकार - फार दरिसते । चोएवि जलहर-हत्थि हड, णीर-सरासणि मुक्क तुरंते ।
पावसराज ने धनुष का आस्फालन किया, तड़ित्रूप में टंकार ध्वनि प्रकट हुई, मेघ- गजघटा को प्रेरित किया और जलधारा-रूप में सहसा बाण-वर्षा कर दी । वर्षारूपी युद्ध के दृश्य की भयंकरता कवि ने अनुरणनात्मक शब्दों के प्रयोग से प्रकट की है ।
पावसराज और ग्रीष्मराज के युद्ध में ग्रीष्मराज युद्धभूमि में मारा गया । पावसराज के विजयोल्लास का वर्णन उत्प्रेक्षालंकार में कवि ने सुन्दरता से किया है।
अपभ्रंश-भारती-2
ददुर रडेवि लग्ग ण सज्जण, ण णच्वन्ति मोर खल दुज्जण । ण पूरन्ति सरिउ अक्कंदें, ण कइ किलकिलन्ति आणंदें । ण परहुय विमुक्क उग्घोसें, ण वरहिण लवन्ति परिओसे ।
सरवर बहु- असु-जलोल्लिय, ण गिरिवर हरिसें गजोल्लिय । ण उन्हविय दवग्गि विओएँ, ण णच्चिय महि विविह विणोए । ण अत्यमिउ दिवायर दुक्खे, णं पइसरइ रयणि सईं सुक्खे ।*
पावस में दादुरों का रटना, मोरों का नाचना, सरिताओं का उमड़ना, बंदरों का किलकिलाना, पर्वतों का हर्ष से रोमांचित होना आदि तो सब स्वाभाविक और संगत है; किन्तु कोकिल का बोलना कवि संप्रदाय के विरुद्ध है ।
स्वयंभू का प्रकृति-वर्णन प्राचीन परम्परा को लिये हुए है । कवि ने अलंकारों के प्रयोग के लिए भी प्रकृति का वर्णन किया है
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णव-फल- परिपक्काणणे काणणे ।
कुसुमिय साहारए साहारए ।
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इसी प्रकार मगध देश का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
जहिं सुय पतिउ जहिं उच्छु- वणई जहिं णंदण-वणई जहिं फाडिय - वयण
सुपरिट्ठिआउ । णं वणसिरि- मरगय - कंठियाउ । पवणाहयाई । कंपति व पीलणभय गयाई । मणोहराई । णच्वति व चल-पल्लव-कराई । दाडिमाई । णज्जति ताइं न कइ मुहाई । सुंदराउ केयइ - केसर - रय- धूसराउ ।
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जहिं महुयर पंतिउ जहिं दक्खा मंडव परियलंति । पुणु पंथिय रस सलिलई पियन्ति 15
अर्थात् जहाँ वृक्षों पर बैठी शुक पंक्ति वनश्री के कंठ में मरकतमाला के समान प्रतीत होती
है । जहाँ पवन से प्रेरित इक्षु वन काटेजाने के भय से भीत हो मानो काँप रहे हैं । जहाँ चंचल पल्लवरूपी करोंवाले मनोहर नंदन वन मानो नाच रहे हैं । प्रस्फुटवदनवाले दाडिमफल बन्दर के मुखों के समान दिखाई देते हैं । जहाँ सुन्दर भ्रमर-पंक्ति केतकी केसररज से धूसरित है ।