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________________ अपभ्रंश-भारती-2 जुलाई, 1992 11 अपभ्रंश साहित्य में प्रकृति-वर्णन • डॉ. इन्द्र बहादुर सिंह मनुष्य जब अपने कार्य के भार से दबकर मुर्दा-सा हो जाता है, तब उस शव में प्राण फॅकनेवाली जो शक्ति है, उसी का नाम 'प्रकृति है, जिसका कि पतन भी मनुष्य का उत्थान कराता है । प्रकृति और मानव का सम्बन्ध उतना ही पुराना है जितना कि सष्टि के उदभव और विकास का इतिहास प्राचीन है । प्रकृति माँ की गोद में ही प्रथम मानव-शिशु ने आँखें खोली थी, उसी की क्रोड़ में खेलकर वह बड़ा हुआ और अन्त में उसी के आलिंगन-पाश में आबद्ध होकर वह चिर-निद्रा में सोता रहा । प्रकृति के अद्भुत क्रिया-कलापों से उसकी हृदयस्थ भावनाओं - भय, विस्मय, प्रेम आदि का स्फुरण हुआ, उसी की नियमितता को देखकर उसके मस्तिष्क में ज्ञान-विज्ञान की बुद्धि का विकास हुआ । दार्शनिक दृष्टि से भी प्रकृति और मानव का सम्बन्ध स्थायी है, चिरंतन : है । सतरूपी प्रकृति, चित्ररूपी जीव और आनन्दरूपी परम-तत्व - तीनों ही मिलकर सच्चिदानन्द सत्ता का रूप धारण करते हैं । शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही दृष्टियों से प्रकृति मानव का पोषण करती हुई उसे जीवन में आगे बढ़ाती है । दृश्य प्रकृति मानव-जीवन को अथ से इति तक चक्रवाल की तरह घेरे रहती है । प्रकृति के विविध कोमल-कठिन, सुन्दर-विरूप, व्यक्त-रहस्यमय रूपों के आकर्षण-विकर्षण ने मनुष्य की बुद्धि और हृदय को कितना परिष्कार और विस्तार दिया है, इसका लेखा-जोखा करने पर मनुष्य प्रकृति का सबसे अधिक ऋणी ठहरेगा । वस्तुतः संस्कार-क्रम से मानव जाति का भावजगत् ही नहीं, उसके चिन्तन की दिशाएँ भी प्रकृति के विविध रूपात्मक परिचय तथा उससे उत्पन्न अनुभूतियों से प्रभावित है। मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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