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अपभ्रंश-भारती-2
फग्गुण-मासु पवोलिय तावेहिँ कुव्वर-णयरु पराइय जावेहिँ, फग्गुण-मासु पवोलिअ तावेहिँ । पइट्ट वसन्तु-राउ आणन्दे, कोइलु-कलयल-मङ्गल-सद्दे । अलि-मिहणेहिँ वन्दिणेहिँ पढन्तेहि, वरहिण-वावणेहिँ णच्चन्तेहिँ । अन्दोला-सय-तोरण-वारेहि, ढुकु वसन्तु अणेय-पयारेहिँ । कत्थइ चूअ-वणई पल्लवियई, णव-किसलय-फल-फुल्लब्भहियई । कत्थइ गिरी-सिरहई विच्छायइँ, खल-मुहई व मसि वण्णई णायई । कत्थइ गिज्जइ वज्जइ मन्दलु, णर-मिहुणेहि पणच्चिउ गोन्दलु । त तहो णयरहों इत्तर-पासेहि, जण-मणहरु जोयण-उद्देसेहिँ । दिट्टु वसन्ततिलउ उज्जाणउ, सज्जण-हियर जेम अ-पमाणउ ।
घत्ता - सहल सयन्धउ डोल्लन्तु वियावड-मत्थउ ।
अग्गएँ रामहों ण थिउ कुसुमजलि हत्थउ ।।
पउमचरिउ,
26.5
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- जब वे (राम-सीता और लक्ष्मण वनवास के समय) कुबेर नगर पहुँचे तब फागुन माह आ चुका था । वसन्तराज ने कोयलों के कल-कल और मंगल-शब्द के साथ आनन्द से प्रवेश किया । पढ़ते हुए मंगलपाठ करते हुए अलिमिथुनों से, नाचते हुए मयूररूपी वामनों से, आन्दोलित (झूमते हुए) सैकड़ों तोरण द्वारों से, (और भी) अन्य प्रकारों से (ज्ञात हो जाता था कि) 'वसन्त' आ पहुँचा (है) । कहीं पर नव किसलय, फल और फूलों से लदे हुए आम्रवन पल्लवित हो उठे। कहीं पर गिरिशिखर इस प्रकार कान्तिहीन हो गये कि (वे) दुष्टों के श्यामवर्ण मुख की तरह ज्ञात होते थे । कहीं पर गाया जा रहा है, कहीं पर बजाया जा रहा है (और कहीं पर) मनुष्य-युगलों द्वारा हर्ष-ध्वनि की जाती है । उस नगर उत्तर (दिशा) की ओर एक योजन की दूरी पर लोगों को सुन्दर लगनेवाला वसन्ततिलक नामक उद्यान दिखाई दिया जो सज्जनों के हृदय की तरह सीमाहीन था ।
सुगन्धित, झूमता हुआ, अच्छे फलों से युक्त वह (उद्यान) मानों नतमस्तक हो हाथों में कुसुमाञ्जलि लेकर राम के आगे स्थित हो ।
अनु., डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन