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अपभ्रंश-भारती-2
17. तिलहं तिलत्तणु ताउ पर जाउ न नेह गलन्ति । (ह. प्रा. व्या. 4.406)
- तिलों का तिलपना तभी तक है, जब तक तेल नहीं निकलता है । 18. को वि भणइ मुहे पण्णु ण लायमि । जाम्व ण रुण्ड-णिवहु णच्चावमि ।
(प. च. 59.4) - कोई कहता है 'मैं मुंह में पान नहीं लूंगा जब तक धड़-समूह को नहीं नचाता हूँ । 19. ताम्व --- णिग्गउ कुम्भयण्णु ।
(प. च. 59.5) - तब --- कुम्भकर्ण निकला ।
3.20. अवसें कन्दिवसु वि सो होसइ, साहसगइहे जुज्झु जो देसइ ।
(प. च. 47.3) - अवश्य ही किसी दिन वह (मनुष्य) उत्पन्न होगा, जो सहस्रगति के साथ युद्ध करेगा । 21. कं दिवसु वि होसइ आरिसाहुँ, कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुँ ।
(प. च. 22.3) - किसी दिन इस प्रकार हम जैसे ज्ञानी लोगों की भी कंचुकी के समान अवस्था होगी। 22. अज्जहो तुहुँ महु राणउ ।
(प. च. 20.11) . - आज से तुम मेरे राजा हो । 23. समउ कुमारें अज्ज वि रावण सन्धि करें ।
(प. च. 58.1) - हे रावण । तुम आज भी कुमार (लक्ष्मण) के साथ सन्धि करो । 24. जइ भरहहो होइ सुभिच्च अज्जु, तो अज्जु वि लइ अप्पणउ रज्जु ।
(प. च. 30.9) - यदि तुम आज भरत के अच्छे दास होते हो तो आज ही अपना राज्य ले लो। 25. सुणु कन्ते कल्ले काइँ करमि ।
(प. च. 62.10) - हे सुन्दरी ! सुनो, कल मैं क्या करूंगा ? 26. तहिं हउँ पलय-दवग्गि कल्लए वणे लग्गेसमि ।
(प. च. 62.11) - मैं कल उस वन में प्रलय की आग लगा दूंगा । 27. सा परए घिवेसइ कहो वि माल ।
(प. च. 7.1) - वह कल किसको माला पहनायेगी । 28. अज्ज वि कुम्भयण्णु णउ आवइ ।
(प. च. 67.8) - आज तक कुम्भकर्ण नहीं आया । 29. जाणइ दिट्ठ देव जीवन्ती । अणुदिणु तुम्हहैं णामु लयन्ती । (प. च. 55.9) - हे देव । जानकी जीती हुई और प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेती हुई देखी गई है ।