SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश-भारती-2 121 जब युयुत्सु कीर्तिसिंह अपने भाई वीरसिंह के साथ जौनपुर के सुलतान इब्राहिम शाह के पास चला तब प्रजा में उत्साह उमड़ पड़ा । उनको किसी ने कपड़ा दिया, किसी ने घोड़ा तथा किसी ने मार्ग-खर्च के लिए पर्याप्त सामग्री दी । किसी ने नदी को पार कराया । किसी ने बोझ पहुँचाया। किसी ने सीधा मार्ग बताया । किसी ने विनयपूर्वक आतिथ्य किया ।25 यह प्रसंग कुश तथा लव को सुप्रीत मुनियों के द्वारा कलश, वल्कल, कृष्णाजिन, यज्ञसूत्र, कमण्डलु. मौजी, कुठार, काषायवस्त्र, जटाबन्धन, काष्ठरज्जु, यज्ञभाण्ड आदि विभिन्न वस्तुओं के दान-प्रसंग का स्मरण दिलाता है । 26 कीर्तिसिंह के साथ चतुरंगिणी सेना की कूच हुई । हस्ति-सेना की युयुत्सा का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि मदमत्त हाथी वृक्षों को तोड़ रहे थे । वे राशीभूत अन्धकार के समान थे, मानो मूर्तिमान् गर्व थे । वे भारी बड़ी सूडों को मारकर मनुष्य के मस्तक को धसमसा देते थे ।27 युयुत्सु अश्वसेना का वर्णन कवि की कारयित्री प्रतिभा का परिचायक है । यथा - अनेअ वाजि तेजि ताजि साजि साजि आनिआ । परक्कमेहि जासु नाम दीपे दीपे जानिआ ॥ विसाल कन्ध चारु वन्ध सत्ति रूअ सोहणा । तलप्प हाथि लाँघि जाथि सत्तु सेण खोहणा ॥ समथ्थ सूर-ऊर पूर चारि पाने चक्करे । अनन्त जुज्झ मम्म वुज्झ सामि तार संगरे ॥29 क्रोध में भरकर गरदन को ऊँचा उठाकर दौड़ना, दर्प से विमुग्ध होकर टाप मारना आदि क्रियाएँ घोड़ों की युयुत्सा प्रकट करती हैं । बार-बार हिनहिनाना, निशान के शब्द और भेरी का शोर सुनकर क्रोधपूर्वक धरती खोदना, अपनी गति से हवा को पीछे छोड़ना, वेग से मन को जीतना - आदि क्रियाएँ घोड़ों की बलवती युयुत्सा की परिचायक हैं । युद्ध में जब असलान ने पीठ दिखा दी तब कीर्तिसिंह ने उसे जीवदान देकर यों कहा जइ रण भग्गसि तइ तोजे काअर । अरु तोहि मारइ से पुनु काअर ॥30 यदि तू रण से भागता है तो तू कायर है और जो तुझे मारे वह और अधिक कायर है। कायरता की इतनी सुन्दर परिभाषा त्रिभुवन में अन्यत्र नहीं मिलती । युयुत्सु कीर्तिसिंह अपने पिता के हन्ता असलान को जीतता है; पिता के वैर का बदला लेता है; खोये हुए राज्य को स्वयं अर्जित कर लेता है । 'कीर्तिलता' सहृदयों के सम्मुख यह ध्वनित करती है कि कीर्तिसिंह ने अन्ततोगत्वा कायरता को जीता है । असलान तो निमित्तमात्र है। 1. कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा, शिव प्रसाद सिंह, पृ. 18 । 2. कीर्तिलता - प्रथम पल्लव - 22, साहित्य सदन, चिरगाँव, झाँसी, प्रथम संस्करण 1962। 3. कीर्तिलता - प्रथम पल्लव - 27 से 30 तक । 4. " " " - 31 । 33 । - 34 ।
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy