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________________ 120 अपभ्रंश-भारती-2 पर पुर मारि सो गहलो बोलए न जा किछु धाए । बप्प वैर उद्धरज न उण परिवण्णा चुकलो ॥ संगर साहस करओ ण उण सरणागत मुक्कसो । दाने दलजो दारिद्द न उण नहि अख्खर भासजो ॥ पाने पाढ वरु करजो न उण नीसत्ति पआसञो । . अभिमान जो रख्खजो जीवसओ, नीच समाज न करो रति ॥ कीर्तिसिंह में सुप्त युयुत्सा जागृत होकर वीरोक्तियों की वृष्टि करता है । इससे स्पष्ट होता है कि शत्रु को उसके नगर में मारकर अकेला ही उसे पकड़ना, पिता के वैर का बदला लेना, अपनी की हुई प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न होना, युद्ध में पराक्रम से काम लेना, शरणागत बनकर चुप न बैठना, क्षत्रिय होकर अशक्ति का प्रदर्शन न करना, जीव के साथ अभिमान करना, नीच की संगति में रुचि न लेना - ये सब युयुत्सु के अभिलक्षण हैं । राजा कीर्तिसिंह ने अपनी वीर भणिति से 'युयुत्सु' एवं 'युयुत्सा' की पूर्ण व्याख्या कर दी है। बदला न लेनेवाला क्लीब कहलाता है । क्लीबता हृदय की दुर्बलता है । भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उक्त क्लीबता के संबंध में प्रबोधित किया था । राजा कीर्तिसिंह तो स्वयं प्रबुद्ध है जिसे प्रबोधित करने के लिए किसी कृष्ण की आवश्यकता नहीं है । कीर्तिसिंह के अनुसार वैरप्रतिमोचन वीर युयुत्सु का प्रथम कर्तव्य है । पैर से स्पर्श करनेवाले को सर्प रुधिर-पान के लिए नहीं डसता, किन्तु बदला लेने के लिए डसता है । किन्तु ऐसा न करने पर उसकी दुर्बलता स्वयं-सिद्ध हो जाती है । यही बात कालिदास ने राम से कहलवाकर रावण-वध का समर्थन किया था ।21 विद्यापति ने भी वीरोक्तियों के ग्रथन से युयुत्सुओं के वीर वातावरण का निर्माण किया है । राजा कीर्तिसिंह क्लीबता का परम शत्रु है; वैरप्रतिमोचन का कट्टर समर्थक है; शत्रु के सम्मुख शरणागति का विरोधी है; दान देकर स्वयं दारिद्रय ओढ लेनेवाला है; पर 'नहीं शब्द कहनेवाला नहीं है । कीर्तिसिंह का उज्ज्वल चरित्र हमें महाराज रघु का स्मरण दिलाता है जिसने विश्वजित् याग में अपना सर्वस्व दक्षिणा के रूप में लुटा दिया है और अपने पास केवल मिट्टी का बरतन बचाकर2 याचकों का दारिद्रय स्वयं ओढ लिया है । पितृहीन एवं राज्यभ्रष्ट कीर्तिसिंह विपत्ति की घड़ी में भी अभिमान नहीं छोड़ता । उसका उज्ज्वल चरित्र मानधनियों के अग्रेसर केसरी का स्मरण दिलाता है । यथा क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टा दशाम् । आपन्नोऽपि विपन्नधीतिरपि प्राणेषु नश्यत्स्वपि ॥ मत्तेमेन्द्र विभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्दस्पृहः । कि जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केसरी ॥3 कीर्तिसिंह शत्रु द्वारा लौटाये राज्य को स्वीकार नहीं करता । उसमें सोया हुआ युयुत्सु जागृत होकर यद्ध में पराक्रम द्वारा उसे स्वयं अर्जित करना चाहता है । कीर्तिसिंह का उज्ज्वल चरित्र उस वन्य सिंह का स्मरण दिलाता है जिसे अभिषेक या संस्कार की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यथा - नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥24
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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