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________________ अपभ्रंश-भारती-2 119 त्यागाय संमृतार्थाना सत्याय मितभाषिणाम् । यशसे विजिगीषूणा प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥ रघूणामन्वय वक्ष्ये4...... मितभाषी एवं विजिगीषु राजकुल का परिचय देते हुए कालिदास ने जिस तरह औचित्य का निर्वाह किया है उसी तरह विद्यापति ने भी युयुत्सु ओइनी वंश का परिचय देते हुए औचित्य की सृष्टि की है। युयुत्सु कीर्तिसिंह का धवल यश ही प्रथम पल्लव का प्रतिपाद्य है । कवि का कथन है कि कीर्तिसिंह की कीर्तिरूपी सुन्दरी अपने स्वामी के मस्तक के साथ विलास करती है।15 कीर्तिसिंह का यश इतना धवल है कि शिव के धवल शरीर की धवल विभूति से सुशोभित शशांक भी कीर्तिसिंह के यश की धवलता से न्यून रहने के कारण उसकी कामना करता है। युयुत्सु कीर्तिसिंह जिगीषु. है । जिगीषा से प्रेरित युयुत्सा ही यश की धवलता में आधिक्य उत्पन्न करती है । राजा गणेश्वर का वध होने पर असलान मन ही मन लज्जित होकर विचारता है कि कीर्तिसिंह को राज्य पुनः लौटा हूँ और उसका सम्मान करूँ । 16 किन्तु सिंह के समान पराक्रमी, मानधनी, बैर का बदला लेने में तत्पर, कीर्तिसिंह शत्रु द्वारा समर्पित राज्य स्वीकार नहीं करता । यथा - सिंह परकम मानधन वैरुद्धार सुसज्ज । कित्तिसिंह णहु अंगवइ सत्तु समप्पिअ रज्ज ॥17 कवि ने उक्त पक्तियों में युयुत्सु 'कित्तिसिंह' का जीता-जागता चित्रण प्रस्तुत किया है। कवि के वर्णनानुसार युयुत्सु के तीन अभिलक्षण अवलोकनीय हैं । यथा - सिंह परक्कम, मानधन और वैरुद्धार सुसज्ज । पिता के हन्ता तथा अपने शत्रु द्वारा समर्पित राज्य को अस्वीकार करना युयुत्सु एवं मानधन कीर्तिसिंह के अनुरूप ही है । जब माता, मित्र और महाजन शत्रु को मित्र बनाकर विरहुत का राज भोगने की बात कहते हैं तब कीर्तिसिंह की हृदय-गिरि-कंदरा में सिंह जाग उठता है और उच्चस्वर में घोषित करता है - माता भणइ ममत्तयइ मन्ती रज्जह नीति । मज्झु पिआरी एक पइ वीर पुरिस का रीति ॥ मान विहूना भोअना सत्तुक देओल राज । सरण पइटे जीअना तीनू काअर काज ॥1॥ युयुत्सु कीर्तिसिंह सिंहनाद करता है और अपने हृदय को यह कहकर समुद्घाटित करता है कि माता ममता के कारण कहती है, मंत्री राजनीति कहता है, परन्तु मुझे तो केवल एक पुरुष की रीति प्रिय है । मानविहीन भोजन, शत्रु के दिये हुए राज्य का उपभोग, शरणागत होकर जीना - ये तीनों कायर के काम हैं । कीर्तिसिंह के सिंहनाद में समग्र काव्य का सन्देश ध्वनित होता है । युयुत्सु कीर्तिसिंह अपने पिता के हन्ता, विश्वासघाती असलान को शत्रु मानता है । यह आपाततः स्पष्ट होता है । किन्तु वह कायरता को अपने आजन्म शत्रु के रूप में स्वीकार करता है । उक्त मनःस्थिति से प्रसूत युयुत्सा कीर्तिसिंह के सिंहनाद में अवलोकनीय है । राजा कीर्तिसिंह की प्रतिज्ञा क्षत्रियोचित है एवं उसकी सिंहोपम युयुत्सा की परिचायक है। यथा
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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