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अपभ्रंश-भारती-2
करेगा । 'छइल्ल (काव्यरसिक) को संस्कृत वाणी नहीं भाती । 'पाउअ रस (प्राकृत रस) सुगमता से नहीं मिलता । अतः कवि घोषणा करता है कि देशी वचन सबको मीठा लगता है। अतः मैं वैसी ही देशी बोली अवहट्ट में रचना करता हूँ ।।
देसिल वयणा सब जन मिट्ठा ।
ते तैसन जम्पउ अवहट्ठा ॥' कलपान्त तक स्थिर रहनेवाली कीर्ति कीर्तिलता का मूलद्रव्य है । कवि शब्दरूपी खंभों को गाड़कर उस पर काव्यरूपी मंच को बाँधकर त्रिभुवन के क्षेत्र में कीर्तिसिंह की कीर्तिरूपी लता फैलाना चाहता है -
तिहुअण खेत्तहिं काइ तसु कित्तिवल्लि पसरेइ ।
अक्खर खंभारभ जउ मञ्चो वन्धि न देइ ॥' जिस प्रकार सिंह अपनी सत्ता की स्थापना के लिए युयुत्सु होता है उसी प्रकार कीर्तिसिंह धवल यश को अर्जित करने के लिए युयुत्सु बना रहता है । कीर्तिसिंह की लोकैषणा में कवि की लोकेषणा का सुखद मिश्रण अवश्य द्रष्टव्य है ।
'कीर्तिलता की संरचना में मुंग-मुंगी-संवाद अवलोकनीय है । मुंगी पूछती है - संसार में सारतत्त्व क्या है ?' भुंग के अनुसार-मानसहित जीना तथा वीर पुरुष का जन्म लेना सारतत्व है ।1० जो मानसहित जीना चाहता है वही वीर पुरुष है । वीर पुरुष महान् युयुत्सु हुआ करता है। युयुत्सा युद्धवीर की भाव-भूमि हुआ करती है । कीर्तिलता का नायक कीर्तिसिंह अनुपम युयुत्सु है । उसकी प्रत्येक क्रिया युयुत्सा से प्रतिमण्डित है । युयुत्सु यश का लोभी हुआ करता है 111 अतः अन्ततोगत्वा लोकैषणा एवं युयुत्सा में कार्य-कारणभाव सिद्ध होता है ।
युयुत्स पुरुषत्व से विभूषित होता है । युयुत्सा का मूलद्रव्य पुरुषत्व है । अभिमान युयुत्सा की आधारशिला है । राजा बलि, रामचन्द्र, भगीरथ तथा परशुराम युयुत्सु एवं स्वाभिमान के रक्षक हैं । युयुत्सु राजकुल (ओइनी वंश) का वर्णन कवि ने जमकर किया है -
जेन्ने खडिअ पुव्व पतिक्ख ॥ जेने सरण न परिहरिअ, जेन्ने अत्थिज विमन नकित्तिअ ॥ जेन्ने अतत्य नहु भणिय जेन्ने पाअ उम्मग्गे न दिज्जिअ ॥
ता कुल केरा वड्डपण कहवा कमण उपाए ॥12 "जिस कुल के राजाओं ने पहले के सब शत्रुओं को पराजित कर दिया, जिन्होंने शरणागत का परित्याग नहीं किया और याचकों की इच्छा का विघात नहीं किया, जिन्होंने असत्य भाषण नहीं किया और जिन्होंने कभी उन्मार्ग में पैर नहीं दिया; उस कुल के राजाओं की महिमा के विषय में किस तरह कहा जाय ।13 ___ ओइनी वंश का उपर्युक्त वर्णन कालिदास कृत रघुवंश की भूमिका का स्मरण दिलाता है । यथा -
सोऽहमाजन्मशुद्धानाम् आफलोयदकर्मणाम् । आसमुद्रक्षितीशानाम् आनाकरथवर्त्मनाम् ॥ यथाविधिहुताग्नीना यथाकामार्चितार्थिनाम् । यथापराधदण्डाना यथाकाल प्रबोधिनाम् ॥