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अपभ्रंश-भारती-2
जुलाई, 1992
'कीर्तिलता' में युयुत्सा का वर्णन
• डॉ. वी. डी. हेगडे
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विद्यापति की वाणी वीणापाणि वाग्देवी का शाश्वत आभरण है । कमनीय काव्य के समस्त लक्षण उनकी कविता में अपना अस्तित्व धारण किये हुए हैं । कोमलकान्त पदावली से विभूषित गीतों के रस में पगा पाठक बारम्बार स्मरण करता है कि "विद्यापति के गीतों ने तत्कालीन जनता के म्रियमाण मन को जीने की ताकत दी, उन्होंने जीवन के ताज़े स्वरों को पहचाना और उन्हें अपनी मधुरा भाव - धारा में पखारकर दिव्यता प्रदान की । " गीतकार से परिचित पाठक एक बार इस बात पर विश्वास भी न कर सकेगा कि 'कीर्तिलता' गीतकार विद्यापति की लेखनी से ही प्रसूत है । विद्यापति का भावुक कवि कीर्तिलता में यथार्थ के धरातल पर उतरकर आशंकित होता है कि चाहे दुर्जन इस काव्य का परिहास क्यों न करें, काव्य-कला के पारखी इसकी अवश्य प्रशंसा करेंगे । कवि आत्म-विश्वास प्रकट करता है कि यदि दुर्जन मर्म का भेद करता हुआ भी मेरे निकट आता है तो उसे भी मैं अपना मित्र बनाऊँगा । 2
का परबोधउ कमन मनावउं । किमि नीरस मन रस लइ लावउ ॥
जइ सुरसा होस मझु भासा । जो बुज्झिहि सो करिहि पसंसा ॥ ३
प्रबन्धकार कवि नीरस मन को रस के पास पहुँचाना चाहता है । ऐसा कवि का विश्वास है कि यदि कविभणिति में उत्तम रस होता तो काव्यरसिक बिना कवि की प्रेरणा के स्वयं ही प्रशंसा