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अपभ्रंश-भारती-2
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है - 'यदि सूर्य के उदित होने पर नलिनी विमल सरोवर में खिलती है, तो क्या बाड़ी में लगी हुई तूंबी या लौकी न फूले ? xxxx जिसके पास जितनी काव्य-शक्ति है, उसको उसी के अनुसार निःसंकोच होकर कविता करनी चाहिए । चतुर्मुख ने कविता की तो क्या अन्य कवि कविता न करें ?" इसी प्रकार की भाव-व्यंजना 'उपदेश रसायन-रास' में भी दर्शनीय है - यदि फूल मूल्य देकर प्राप्त हो सकते हो तो क्या कुएँ के समीप वाटिका नहीं लगाई जा सकती -
जइ किर फुल्लइ लब्भइ मुल्लिण
तो बाडिय न करहि सहु कूविण ॥28॥10 किन्तु, 'पृथ्वीराज-रासो'11 में इस प्रकार की अनेक उक्तियाँ अवलोकनीय हैं । इससे भी आगे बढ़कर रासककार अपने पाठकों की ओर सकेत करके कहता है - 'पण्डितजन का कुकविता से संबंध नहीं रहता और अबुध-जनों का प्रबुधत्व के कारण प्रवेश ही नहीं होता। अतः जो न मूर्ख हैं न पण्डित हैं बल्कि मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इसे सर्वदा पढ़ना -
णहु रहइ बुहह कुकुवित्त रेसु, अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसु ।
जिण मुक्ख ण पण्डिय मज्झयार, तिह पुरउ पढिब्बउ सव्ववार ॥2 यह भाव निसदेह रासककार के लोकवादी दृष्टिकोण का ही पोषक है । इसके प्रतिपाद्य का सकेत भी लोक-भाव-भूमि को ही स्पष्ट करता है - 'यह अनुरागियों का रतिगृह, कामियों का मन हरनेवाला, मदन के माहात्म्य को प्रकाशित करनेवाला, विरहिणियों के लिए मकरध्वज और रसिकों के लिए विशुद्ध रस संजीवक है -
अणुराइय, रइहरु कामियमणहरु, मयण महप्पह दीवयरो ।
विरहिणिमइरद्धउ सुणहु विसुद्धउ, रसियह रससजीवयरो ॥3 द्वितीय प्रक्रम में विरहिणी के रूप का मनोहारी शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है (छ. 24-25) और बीच में ही मार्ग से जाते पथिक की अवतारणाकर कवि रासक के विवेच्य को गति प्रदान करता है । यह नाटकीय प्रारम्भ रस की दृष्टि से अतीव आकर्षक बन पड़ा है । प्रोषित-पतिका बड़ी उतावली से उसके पास तक पहुँचने का प्रयास करती है - देखिए, अन्तर-बाह्य का कैसा अनूठा साम्य है, चित्रण की मनोवैज्ञानिता और गतिशीलता यहाँ देखे ही बनती है -
तह मणहर चल्लतिय चचलरमणभरि, छुडवि खिसिय रसणावलि किकिणरव पसरि ॥26॥ त ज मेहल ठवइ गठि णिठुर सुहय, तुडिय ताव थूलावलि णवसरहारलय । सा तिवि किवि संवरिवि चइवि किवि संचरिय, णेवर चरण विलग्गिव तह पहि पखुडिय ॥27॥ पडि उट्ठिय सविलक्ख सलज्जिर संझसिय, त सिय सच्छ णियसण मुद्धह विवलसिय । त सवरि अणुसरिय पहियपावयणमण, फुडवि णित्त कुप्पास विलग्गिय दर सिहण ॥28॥14