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________________ 110 अपभ्रंश-भारती-2 सदेश-रासक का कवि तो इन रूढ़ियों से भी आगे बढ़कर सबके कल्याण की मंगल-कामना करता हुआ, अपनी मौलिकता का परिचय पाठकों को संबोधन करके देता है - 'हे नागरजनो। उस कार को नमस्कार करो जो मनुष्यों, देवताओं, विद्याधरों और आकाश-मार्ग पर चलनेवाले सूर्य-चंद्र-बिम्बों तथा अन्यों द्वारा नमस्कृत होता है । पुनः अपना आत्म-परिचय देते समय भी वह न अपनी हीनता का प्रदर्शन करता है और न स्वयं को किसी का अनुसरणकर्ता ही कहता तह तणओ कुलकमलो पाइयकव्वेसु गीयविसयेसु । अद्दहमाणपसिद्धो सनेहरासयं रइयं ॥ वर्ण्य-विभाजन में भी रासककार की तीन 'प्रक्रमों की योजना अपनी निजी है और लघुकाय वर्ण्य को पूर्णता के उत्कर्ष तक ले जाने में उसने कला-चातुरी का परिचय दिया है। वीर-गीतों (बैलेड्स) की भाँति लोक-प्रणय-गीतों को भी दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है - मुक्तक लोक-प्रणय-गीत, जो कलेवर में लघुकाय किन्तु रसानुभूति में पूर्णतः सक्षम होते हैं; किसी कथा का श्रृंखलाबद्ध तारतम्य इनमें नहीं होता और दूसरे, प्रबन्धात्मक लोक-प्रणय-गीत। यहाँ प्रबंधात्मकता के दो प्रधान पहलू कहे जा सकते हैं - एक, जिसमें कथा-भाग प्रमुख रहता है और द्वितीय, जिसमें कथा नाममात्र को रहती है किन्तु श्रृंगार-रस के किसी एक भाव की तीव्रता आद्यंत बनी रहती है । एक में जहाँ वर्णनात्मकता रहती है, वहाँ द्वितीय में भाव-गरिमा का आकर्षण कृति को प्राणत्व प्रदान करता है । प्रस्तुत रासक को हम इसी द्वितीय कोटि में रखते हैं । प्रथम के अन्तर्गत राजस्थान के सुप्रसिद्ध लोक-गीत 'ढोला-मारू-रा-दूहा को रखा जा सकता है तथा नरपति-नाल्ह के 'बीसलदेव-रास' को इन दोनों के मध्य की कड़ी कहा जा सकता है । उसमें वर्णनात्मकता के साथ विरह-भाव की गहराई भी द्रष्टव्य है । इस प्रकार स्पष्ट है कि रासककार का यह वर्ण्य-विभाजन कथा-तत्त्व के अभाव में भी मौलिक एवं उसके विशिष्ट अभिप्राय का प्रतिपादक है । निश्चय ही वह अपने वर्ण्य को प्रबन्ध-रूप प्रदान करने के लिए सजग है । तभी तो उसने 'मेघदूत' के समान पूर्व एवं उत्तर-मेघ की कल्पना न करके कुल तीन प्रक्रमों का संधान किया है जो उसके प्रतिपाद्य की दृष्टि से नितांत पूर्ण हैं। साथ ही, पूर्ववर्ती प्रबन्ध-पटुता को भी वह नहीं भुला पाया है । यही कारण है कि 'मेघदूत' जहाँ खण्ड-काव्य की कोटि में ही आता है वहाँ 'सन्देश-रासक' एक सफल लोक-गीतात्मक प्रबन्ध-काव्य ही है । यों उसके छन्दों से मुक्तक-काव्य का भी आनन्द लिया जा सकता है, किन्तु उसकी गरिमा का सौजन्य इस प्रबन्धत्व में ही है । उसमें वर्ण्य विरह-भाव के विकास की एक श्रृंखला है और यही प्रबन्धत्व की सफल-सबल कसौटी है । अतः इसे 'मुक्तक' या 'क्षीणधम कहना औचित्यपूर्ण नहीं । प्रबन्ध-प्रणयन की यह परम्परा रासककार को अपने पूर्ववर्ती साहित्य से विरासत के रूप में प्राप्त हुई । किन्तु, युग-चेता कवि अपनी मौलिक प्रतिभा तथा भव्यसृष्टि का सहज परिचय देता हुआ, पूर्व परम्परा को गतिशील बनाता है । यहाँ न तो संस्कृत-प्रबन्धों की भाँति आठ या अधिक सर्ग हैं और न अपभ्रंश-सदृश कड़वक तथा संधियों की योजना । बल्कि, 223 छन्द का यह रासक-काव्य तीन प्रक्रमों में विभक्त है । अस्तु, रास या रासौ काव्य-विधा के विकास में इसके मूल्यवान महत्त्व और योगदान को भुलाया नहीं जा सकता । प्रथम प्रक्रम में रासककार अपनी पूर्ववर्ती प्रबंध-प्रणयन की परम्परा के निर्वाह हेतु सभी कवि एवं विदग्धों के प्रति श्रद्धा प्रकट करता हुआ, अपनी कविता के संबंध में गहन आस्था व्यक्त करता
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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