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________________ अपभ्रंश-भारती-2 109 जैन-मुनियों द्वारा प्रणीत अपभ्रंश का विपुल रास-साहित्य काव्य-रूप के मूल उत्स की दृष्टि से विशुद्ध लोक-नृत्य में गेयांश के मिलने पर गेय रूपक की श्रेणी के अनंतर कालांतर में पाठ्य होता गया । किन्तु, 12वीं सदी में ऐतिहासिक इतिवृत्तों तथा लोक-गीतात्मक विषयों को लेकर भी रास-कृतियों की रचना हुई । शैली की दृष्टि से इसके दो रूप हो गये - एक, रास या -शैली और दूसरी रासक-शैली । एक, शास्त्रीय-पथ का अनुकरण करती हुई भी, अपने परवर्ती विकास में विविध काव्य-पद्धतियों का समाहार कर सतत विकासशील रहकर, स्वतंत्र काव्य-रूप को प्रशस्त कर सकी है; जबकि दूसरी लोकोन्मुख ही अपेक्षाकृत अधिक रही है । लोक-गीतों की मधुरता तथा भाव-व्यंजना यहाँ सहृदय को झंकृत करती रहती है । अपने स्वतंत्र काव्य-रूप के निर्धारण में यह किसी प्रभाव की ऋणी नहीं । इसमें कथा का क्षीण आधार लोक-जीवन की माधुरी का ही परिणाम है । लगता है जैसे रासककार अपनी रासक-परम्परा को रास या रासो-परम्परा से भिन्न बनाये रखने के लिए सतत जागरूक है । उसके प्रतिपाद्य का चयन इस तथ्य का परिचायक है। फिर भी, इस नव्य काव्य-विधा पर प्राकृत के 'अमरुक-शतक', 'गाहा-सप्तसई', 'आर्या-सप्तसई तथा हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में संग्रहीत कतिपय मुक्तकों की व्यंजना-पद्धति का लोकस्पर्शी प्रभाव अवश्य अवलोकनीय है । किन्तु, इस सदी के उपरांत प्रस्तुत काव्य-परम्परा का विकास अवरुद्ध हुआ ही मिलता है । 'सन्देश-रासक' के बाद ऐसी अन्य कृति अद्यतन उपलब्ध नहीं हो सकी है । बहुत संभव है, लोक-वाणी का प्रतिनिधित्व करती हुई यह मौखिक रूप में जीवित रही हो। साहित्य में काव्य-रूप की परम्परा अनुकूल परिस्थितियों में पुनर्विकसित होती है, पूर्णतः उसका विनाश कभी नहीं होता । विन्यास की दृष्टि से भी रासक-काव्य-रूप, रास या रासो-काव्य से प्रायः भिन्न है । काव्य-प्रणयन में प्रारम्भ तथा अंत की कतिपय काव्यगत रूढ़ियाँ दोनों पर पूर्ववर्ती काव्यों के प्रभाव की ही द्योतक हैं । प्रारम्भ में ईश-वन्दना अथवा आशीर्वादात्मक शब्दों का प्रयोग और अन्त में फल-प्राप्ति का सकेत भारतीय काव्य-प्रणयन की ऐसी ही पुरातन रूढ़ियाँ हैं - प्रारम्भ - रयणायर गिरितरुवराई गयणंगणमि रिक्खाई । जेणज्ज सयल सिरिय सो बहयण वो सिव देउ ॥1॥ अन्त - जेम अचितिउ कज्जु तस सिद्ध खणद्धि महंतु । तेम पठत सुणतयह जयउ अणाइ अणतु ॥223॥ - संदेश-रासक, संपा. आचार्य द्विवेदी एवं त्रिपाठी प्रारम्भ - रिसह जिणेसर पय पणमेवी, सरसति सामिणि मनि समरेवी, नमवि निरंतर गुरु चलणा ॥1॥ अन्त - जो पढइ ए वसह वदीत, सो नरो नितु नव निहि लहइए ॥203॥ - भरतेश्वर बाहुबलिरास x प्रारम्भ - वीर जिणेसर चरण कमल कमला कयवासो, पणभवि पभणिसु सामि साल गोयम गुरु रासो ॥2॥ अन्त - एह रास जे भणे भणावे, वर सयगल लच्छी घर आवे, मन वछित आशा फले ए ॥62॥ - गौतम स्वामीरास
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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