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________________ 108 अपभ्रंश-भारती-2 अपभ्रंश के पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य में इस प्रकार के विरह-काव्यों की परम्परा, कहीं स्फुट और कहीं प्रबन्ध-रूप में उपलब्ध होती है । यथा, उदयन-कृत 'मयूर-सन्देश'; वासुदेव-कृत 'भृग-सन्देश'; वामनभट्ट वाण-कृत 'हंस-दूत'; विष्णुगात-रचित 'कोक-सन्देश' तथा कालिदास-कृत 'मेघदूत' आदि । किन्तु, इन सभी में पुरुष-विरह की प्रधानता है । पर, प्राकृत में लिखे धोयीक के 'पवन-दूत' में सन्देश-प्रेषण नायिका ही करती है और 'सन्देश-रासक' में भी नारी-विरह ही मूल प्रतिपाद्य है । परवर्ती-साहित्य में भी नारी की ही प्रमुखता रही है । वस्तुतः, विरह-चित्रण में सन्देश-प्रेषण काव्य की चिर-पुरातन रूढ़ि रहा है। परन्तु, अचेतन-वस्तु को प्रेम-प्रसंग में दौत्य-कर्म के लिए भेजकर तथा प्रणय में गाढ़ उत्कंठातिरेक की सद्य अभिव्यक्ति करके कालिदास ने अपने 'मेघदूत' में जिस मौलिक प्रतिभा एवं कला-कौशल का परिचय दिया है, वह विश्व-साहित्य में बेजोड़ है । इसमें धनपति कुबेर के अभिशाप से निर्वासित विरही यक्ष अपनी प्रेयसी के पास मनोव्यथा का विरह-सन्देश लेकर मेघ को भेजता है; जबकि 'सन्देश-रासक' में विरहिणी एक पथिक से अपनी विरह-जन्य स्थिति का निरूपण करती है । यहाँ सन्देश-वाहक में अचेतन तथा चेतन-रूप की भिन्नता का कारण कवि के भाव-संवेदन की अनुभूति का स्तर है । फिर, कालिदास को प्रकृति के मनोहर रूप-चित्रों की चित्रपटी भी तैयार करनी थी, जिसके लिए उन्हें मेघ से ही दूतकार्य लेना पड़ा । फलतः, उनकी स्वच्छंद कल्पना को प्रकृति के विस्तृत प्रांगण में उन्मुक्त पंख फैलाने को प्रभूत स्थान प्राप्त हो सका । वस्तुतः बाह्य-प्रकृति का मनहर वातावरण ही सम्पूर्ण मेघदूत का आधार-बिन्दु है । किन्तु, रासककार के समक्ष इस प्रकार का कोई धेय नहीं रहा है। वह तो लोकानुभूत सत्य के आधार पर ही अपनी भाव-गरिमा को काव्य में गूंथ देना चाहता है। तभी तो दौत्य-कर्म-हेतु चेतन पथिक को लिया है जो स्वयं भाव की तरलता और गंभीरता-गहराई को समझता है । इसी से यहाँ न कहीं कल्पना की दुरूहता है और न आतिशय्य । अथ च भावों का तलस्पर्शी सौजन्य और सहज ग्राह्यता ही आद्यन्त इसका सौन्दर्य है। अथ से इति तक भावात्मक परिवेश ही इसकी विभूति है । सन्देश-काव्य की सफलता का आधार सन्देश-वाहक द्वारा पहुँचने पर विरह के मार्मिक निरूपण में है । यही कविता-प्रस्फुटित होकर सहृदय को आत्म-विभोर करती है। 'मेघदूत' में मेघ अलकापुरी पहँचकर अभिशापित यक्ष की विरह-स्थिति का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करता है । 'बीसलदेव-रास' में सन्देश-वाहक पण्डित उड़ीसा पहुँचकर राजा से विरह-विधुरा रानी राजमती की पीड़ा का निरूपण करता है । हिन्दी के कृष्ण-भक्ति- काव्य में ब्रज से लौटकर उद्धव श्रीकृष्ण को गोपांगनाओं की स्थिति का परिचय कराते हैं । 'पृथ्वीराज-रासौ' में शुक द्वारा पद्मावती के विरह-सन्देश को प्राप्त कर पृथ्वीराज विह्वल हो उठता है । इस दृष्टि से 'सन्देश-रासक' को सफल तथा पूर्ण 'सन्देश-काव्य' नहीं कहा जा सकता । हाँ, इसके नाम से अवश्य व्यवधान प्रस्तुत होता है । इस सन्दर्भ में इतना ही निवेदन है कि इसका 'संदेश' शब्द रासककार ने निश्चय ही अपने पूर्ववर्ती प्रणय-काव्यों से ग्रहण किया है, ताकि पाठक को चमत्कृत किया जा सके । यहाँ ज्योंही विरहिणी पथिक को सन्देश देकर विदा करती है, उसे अपना पति दक्षिण-दिशा से आता हुआ दीख पड़ता है। इस नाटकीय अंत से सन्देश-प्रेषण की द्रवणशीलता का मूल्य एकदम मिट जाता है । सहृदय पाठक विरह के विमुग्ध वातावरण में निमग्न रहकर अकस्मात् मूल भाव-सूत्र के विच्छिन्न हो जाने से चकित हो जाता है और इससे रसानुभूति में किंचित् बाधा भी उत्पन्न होती है । अस्तु, इसे 'मेघदूत' के ढंग का 'सन्देश-काव्य' या 'दूत-काव्य' नहीं कहा जा सकता । गीति-काव्य की भावात्मकता, उन्मुक्त प्रतिभा तथा कल्पना-चातुरी का लालित्य अवश्य रासककार की काव्य-निधि है ।
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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