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अपभ्रंश-भारती-2
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गये हैं । वे ग्रंथ हैं - (1) परमात्मप्रकाश, (2) योगसार, (3) नौकार श्रावकाचार, (4) अध्यात्म संदोह, (5) सुभाषिततंत्र, (6) तत्वार्थ टीका, (7) दोहापाहुड, (8) अमृताशीति, (७) निजात्माष्टक। इनमें से नं. 4.5 और 6 के विषय में विशेष विवरण नहीं मिलता । 'अमृताशीति' एक उपदेशप्रधान रचना है । अन्तिम पद में योगीन्द्र शब्द आया है ।" यह रचना योगीन्दु मुनि की है, इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता । 'निजात्माष्टक' प्राकृत भाषा का ग्रंथ है । इसके रचयिता के सम्बन्ध में भी कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ।
नौकार श्रावकाचार या सावयधम्म दोहा में जैन श्रावकों के आचरण सम्बन्धी नियम हैं। इसके रचयिताओं में तीन व्यक्तिओं - योगीन्दु, लक्ष्मीधर और देवसेन का नाम लिया जाता है । 'हिन्दी साहित्य के वृहत् इतिहास' में योगीन्दु को 'सावयधम्म दोहा का कर्ता बताया गया है । इस पुस्तक की कुछ हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में 'जोगेन्द्रकृत' लिखा भी है । सावयधम्म दोहा की तीन हस्तलिखित प्रतियाँ ऐसी हैं जिनमें कवि का नाम 'लक्ष्मीचन्द' दिया हुआ है ।21 किन्तु इसका सम्पादन डा. हीरालाल जैन ने किया है और उसकी भूमिका में 'देवसेन' को ग्रंथ का कर्ता सप्रमाण सिद्ध कर दिया है । अतएव इसमें अब सन्देह का स्थान नहीं रह गया है कि 'सावयधम्मदोहा देवसेन की रचना है ।2 देवसेन दशवीं शताब्दी के जैन कवि थे । उन्होंने 'दर्शनसार', 'भावसंग्रह आदि ग्रंथों की रचना की थी । दर्शनसार के दोहा नं. 49, 50 में आपने लिखा है कि ग्रंथ की रचना धारा नगरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर सम्वत् 990 को माघ सुदी दशमी को की। इससे स्पष्ट है कि वे दशवीं शताब्दी में हुए थे ।
'दोहापाहड' के सम्बन्ध में दो रचयिताओं का नाम आता है - मुनि रामसिंह और योगीन्द मुनि । डॉ. हीरालाल जैन ने इस ग्रंथ का सम्पादन दो हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर किया है ।23 उन्हें एक प्रति दिल्ली और दूसरी कोल्हापुर से प्राप्त हुई थी । दिल्लीवाली प्रति के अन्त में "श्री मुनिरामसिंह विरचिता पाहुड दोहा समाप्त" लिखा है और कोल्हापुर की प्रति के अन्त में "इति श्री - योगेन्द्रदेव विरचित दोहापाहुड नाम ग्रंथ समाप्त" लिखा है । 'दोहापाहुड' की एक हस्तलिखित प्रति मुझे जयपुर के 'आमेर शास्त्र भंडार' गुटका नं. 54 से प्राप्त हुई है । इस प्रति के अन्त में लिखा है कि "इति द्वितीय प्रसिद्ध नाम जोइन्दु विरचितं दोहापाहुडयं समाप्तानि ।" इस कारण यह निर्णय कर सकना कि इसका कर्ता कौन है ? कुछ कठिन हो जाता है ।
अब दो ग्रंथ परमात्मप्रकाश और योगसार - ही ऐसे रह जाते हैं जिनको निर्विवाद रूप से योगीन्दु मुनि की रचना कहा जा सकता है । परमात्मप्रकाश में दो महाधिकार हैं । प्रथम महाधिकार में 123 तथा दूसरे में 214 दोहे हैं । इस ग्रंथ की रचना योगीन्दु मुनि ने अपने शिष्य भट्ट प्रभाकर के आत्मलाभ के लिए की थी । प्रारम्भ में भट्ट प्रभाकर पंचपरमेष्ठी तथा योगीन्दु मुनि की वन्दना करके निर्मल भाव से कहते हैं कि मुझे संसार में रहते हुए अनन्तकाल व्यतीत हो गया, फिर भी सुख नहीं मिला, दुःख ही दुःख मिला । अतएव हे गुरु । चतुर्गति दिवगति, मनुष्यगति, नरकगति, तिर्यकगति) के दुःखों का निवारण करनेवाले परमात्मा का वर्णन कीजिए -
भावि पणविवि पंचगुरु सिरि-जोइन्दु-जिणाउ । भट्रपहायरि विण्णविउ विमल करेविण भाउ ॥8॥ गउ संसारि वसन्ताहं सामिय कालु अणन्तु । पर म. किंपि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महन्तु ॥9॥ चऊगइ-दुक्खहें तत्ताहैं जो परमप्पउ कोइ । चउगइ-दुक्ख-विणासयरुकहहु पसाएँ सो वि ॥10॥
- (परमात्मप्रकाश, प्र. महाधिकार )