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अपभ्रंश-भारती-2
भट्ट प्रभाकर की इस प्रार्थना को सुनकर योगीन्दु मुनि 'परमतत्व' की व्याख्या करते हैं। व आत्मा के भेद, बहिरात्मा, परमात्मा, अन्तरात्मा का स्वरूप मोक्ष-प्राप्ति के उपाय, निश्चयनय, सम्यक्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का वर्णन करते हैं । स्थान-स्थान पर भट्ट प्रभाकर शंका उपस्थित करते हैं । तब योगीन्दु उस विषय को अधिक विस्तार से स्पष्ट करते हैं । इसीलिए अन्त में उन्होंने कहा है कि पण्डितजन इसमें पुनरुक्ति दोष पर ध्यान न दें । क्योंकि मैंने भट्ट प्रभाकर को समझाने के लिए परमात्म तत्व का कथन बार-बार किया है -
इत्यु ण लेवउ पण्डियहि, गुण-दोसु वि पुणरुत्तु । भट्ट-पभायर-कारणई मई पुणु-पुणु वि पउत्तु ॥2॥
- ( परमात्मप्रकाश, द्वि. महाधिकार ) __'योगसार' आपकी दूसरी रचना है । इसमें 108 दोहा छन्द हैं । इसका विषय भी वही है जो 'परमात्मप्रकाश का है । ग्रंथ के अन्त में कवि ने स्वयं कहा है कि संसार के दुःखों से भयभीत योगीन्दु देव ने आत्मसम्बोधन के लिए एकाग्र मन से इन दोहों की रचना की -
संसारह भय-भीयएण जोगिचन्द-मुणिएण ।
अप्पा-सबोहण कया दोहा इक-मणेण ॥108॥ दोनों ग्रंथ श्री ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर 'रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला' से प्रकाशित हो चुके हैं । समीक्षा __योगीन्दु मुनि उच्च-कोटि के साधक हैं । आपने जैन एवं जैनेतर ग्रंथों का विशद अध्ययन किया था । आप संकीर्ण विचारों से पूर्णतया मुक्त थे । आपने अनुभूति को ही अभिव्यक्ति का आधार बनाया और केवल जैनधर्म के ग्रंथों का ही पिष्टपेषण और व्याख्या आदि न करके, जिस चरम सत्य का अनुभव किया, उसे निर्भीक-निर्द्वन्द्र वाणी से अभिव्यक्त कर दिया । एतदर्थ अन्य धर्मों की शब्दावली ग्रहण करने में आप हिचके नहीं तथा जैन मत की कुछ मान्यताओं से अलग जाने से डरे नहीं । आपने आत्मा के तीन स्वरूपों को आचार्य कुन्दकुन्द के समान ही स्वीकार किया और कहा कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा एक होने पर भी पर्यायदृष्टि से तीन प्रकार का हो जाता है - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । शरीर को ही आत्मा समझनेवाले मूढ़ या बहिरात्मा होते हैं । ऐसे मिथ्यादृष्टि पुरुषों को यह विश्वास रहता है कि मैं गोरा हूँ या श्यामवर्ण का हूँ । मैं स्थूल शरीर का हूँ या मेरा शरीर दुर्बल है । वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि विभिन्न वर्णों की यथार्थता में भी निष्ठा रखते हैं 14 किन्तु जो कर्म-कलंक से विमुक्त हो जाता है, सत्यासत्य विवेकी हो जाता है, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जान लेता है, उसे शरीर और आत्मा का अन्तर स्पष्ट हो जाता है । आत्मा की यही अवस्था ‘परमात्मा' कहलाती है । यह आत्मा ही निरंजन देव है, शिव, ब्रह्मा, विष्णु है, एक ही तत्व के ये विभिन्न नाम हैं ।
योगीन्दु मुनि ने 'परमात्मा को ही निरंजनदेव कहा है । और निरंजन कौन है ? इसका वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि निरंजन वह है, जो वर्ण, गंध, रस, शब्द, स्पर्श से रहित है, जन्म-मरण से परे है । निरंजन वह है, जिसमें वर्ण, गंध, रस, मद, माया, मान का अभाव है। निरंजन वह है, जो क्रोध, मोह, हर्ष-विषाद आदि भावों से अलिप्त है 125
योगीन्दु मुनि का यह निरंजन 'निरंजनमत' की याद दिला देता है । 'निरंजनमत' आठवीं-नवी शताब्दी में बिहार, बंगाल आदि के कुछ जिलों में काफी प्रभावशाली रूप में फैला हुआ था ।