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अपभ्रंश - भारती-2
श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने तो अपभ्रंश को 'पुरानी हिन्दी' माना है और अपभ्रंश साहित्य के अनेक उद्धरणों का विश्लेषण करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ये उद्धरण अपभ्रंश कहे जाएँ, किन्तु ये उस समय की पुरानी हिन्दी ही है, वर्तमान हिन्दी साहित्य से उनका परम्परागत सम्बन्ध वाक्य और अर्थ से स्थान-स्थान पर स्पष्ट होगा। 16 भाषा के विकास क्रम में ऐसा समय भी आता है। जब कि एक भाषा अपने स्थान से हटने लगती है और दूसरी भाषा उसका स्थान ग्रहण करने
लिए सक्रिय हो उठती है। इसको भाषा का संक्रान्ति युग कहते हैं । ऐसे संक्रान्ति युग संस्कृति - पालि, पालि-प्राकृत, प्राकृत-अपभ्रंश और अपभ्रंश - हिन्दी के बीच में आये हैं । छठी शताब्दी को प्राकृत- अपभ्रंश का संक्रान्ति युग माना जाता है, जब कि प्राकृत के स्थान पर अपभ्रंश साहित्यिक भाषा का स्थान ले रही थी और कविगण अपभ्रंश की ओर झुक रहे थे । किन्तु अभी अपभ्रंश का स्वरूप-निर्देश नहीं हो सका था । उसके अनेक प्रयोग प्राकृत के से थे । योगीन्दु मुनि के 'परमात्मप्रकाश' और विशेष रूप से 'योगसार की जो भाषा है, उसे हम छठी शताब्दी की नहीं मान सकते, क्योंकि उस समय की भाषा में अचानक इतनी वियोगात्मकता और सरलता आ जाय (जैसी की योगसार में है) इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । 'योगसार' के कुछ दोहों से स्पष्ट हो जाएगा कि वे हिन्दी के कितने निकट हैं।
देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु ण होहिं । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहि ॥11॥ चउरासी- लक्खहि फिरिउ कालु अणाइ अणंतु ।
पर सम्मत्तु ण लद्ध जिय एहउ जाणि भिंतु ॥ 25 ॥
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उक्त दोहों में देहादिउ, जे, परि, ते, होहि, जीव, तुहु, चउरासी, लक्खहिं, कालु, जिय आदि शब्द हिन्दी के ही हैं ।
हेमचन्द्र ने अपने 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' के आठवें अध्याय में प्राकृत अपभ्रंश व्याकरण पर विचार किया है । उन्होंने व्याकरण की विभिन्न विशेषताओं के प्रमाणरूप में अपभ्रंश की रचनाओं को उद्धृत किया है । ये उद्धरण पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों की रचनाओं से लिये गए हैं। हेमचन्द्र का समय सम्वत् 1145 से सं. 1229 तक माना जाता है । अधिकांश उद्धरण आठवीं-नवीं और दसवीं शताब्दी के हैं । परमात्मप्रकाश के भी तीन दोहे नीचे दिये जा रहे हैं । 17 ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक की अपभ्रंश पर विचार किया है । अतएव निष्कर्ष निकलता है कि योगीन्दु मुनि ईसा की आठवीं शताब्दी के अन्त अथवा नवीं शती के प्रारम्भ में हुए होंगे ।
डॉ. हरिवंश कोछड़ ने भी योगीन्दु का समय आठवीं-नवीं शताब्दी माना है । उन्होंने डॉ. उपाध्ये के मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि चण्ड के प्राकृत-लक्षण में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया हुआ मिलता है जिसके आधार पर डॉ. उपाध्ये योगीन्दु का समय चण्ड से पूर्व ईसा की छठी शताब्दी मानते हैं । किन्तु सम्भव है कि वह दोहा दोनों ने किसी तीसरे स्रोत से लिया हो । इसलिए इस युक्ति से हम किसी निश्चित मत पर नहीं पहुँच सकते, भाषा के विचार से योगीन्द्र का समय आठवीं शताब्दी के लगभग प्रतीत होता है 118
ग्रंथ
योगीन्दु के नामकरण और आविर्भाव के समान, उनके ग्रंथों के सम्बन्ध में भी काफी विवाद है । श्री ए. एन. उपाध्ये ने ऐसे नौ ग्रंथों की सूची दी है जो योगीन्दु के नाम से अभिहित किये