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________________ 98 अपभ्रंश-भारती-2 का लिपि काल सं. 1827 है - "सं. 1827 मिति काती वदी 13 लिखि । ठोलियों के मन्दिरवाली प्रति के अन्त में लिखा है - 'इति योगेन्द देव कृत-प्राकृत दोहा के आत्मोपदेश सम्पूर्ण । उक्त प्रति का अन्तिम दोहा इस प्रकार है - संसारह भयभीतएण जोगचन्द मुणिएण । अप्पा संवोहण कथा दोहा कव्वु मिणेण ॥108॥ श्री ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित योगसार के दोहा नं. 108 से यह थोड़ा भिन्न है। इसके प्रथम चरण में 'भयभीयएण' के स्थान पर 'भयभीतएण', 'जोगिचन्द' के स्थान पर 'जोगचन्द' और द्वितीय चरण में 'इक्कमणेण' के स्थान पर 'कव्वु मिणेण' का प्रयोग हुआ है। कवि ने अपने को 'जोइन्दु' या 'जोगचन्द' (जोगिचन्द) ही कहा है, यह परमात्मप्रकाश और योगसार में प्रयुक्त नामों से स्पष्ट है । 'इन्दु' और 'चन्द्र' पर्यायवाची शब्द हैं । व्यक्तिवाची संज्ञा के पर्यायवाची प्रयोग भारतीय काव्य में पाये जाते हैं । श्री ए. एन. उपाध्ये ने भागेन्दु (भागचन्द्र) शुभेन्दु (शुभचन्द्र) आदि उद्धरण देकर इस तथ्य की पुष्टि की है । गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' में व्यक्तिवाची संज्ञाओं के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है । 'सुग्रीव' का सुकंठ, 'हिरण्यकशिपु का 'कनककशिपु', 'हिरणयाक्ष' का 'हाटकलोचन', 'मेघनाद' का 'वारिदनाद', और 'दशानन' का 'दशमुख' आदि प्रयोग प्रायः देखने को मिल जाते हैं । श्री ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में 'जोइन्दु' का संस्कृत रूपान्तर 'योगीन्दु' कर दिया । इसी आधार पर परवर्ती टीकाकारों और लिपिकारों ने 'योगीन्द्र' शब्द को मान्यता दी । किन्तु यह प्रयोग गलत है । कवि का वास्तविक नाम 'जोइन्दु, योगीन्दु या जोगिचन्द' ही है । तीनों एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं । काल-निर्णय 'जोइन्दु' के नामकरण के समान ही उनके काल-निर्णय पर भी मतभेद है, और उनको ईसा की छठी शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक घसीटा जाता है । श्री गाँधी 'अपभ्रंश काव्यत्रयी की भूमिका (पृ. 102-103) में 'जोइन्दु' को प्राकृत वैयाकरण चण्ड से भी पुराना सिद्ध करते हैं । इस प्रकार वे इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी मानते जान पड़ते हैं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आफ्को आठवी-नवीं शताब्दी का कवि मानते हैं। श्री मधुसूदन मोदी ने (अपभ्रंश पाठावली, टिप्पणी, पृ. 77,79) आपको दशवीं शती में वर्तमान होना सिद्ध किया है । श्री उदयसिंह भटनागर ने लिखा है कि प्रसिद्ध जैन साधु जोइन्दु (योगीन्दु) जो एक महान विद्वान वैयाकरण और कवि था, सम्भवतः चित्तौड़ का ही निवासी था । इसका समय विक्रम की 10वीं शती में था । हिन्दी साहित्य के वृहत् इतिहास में आपको '11वीं शती से पुराना' माना गया है । श्री कामताप्रसाद जैन आपको बारहवीं शताब्दी का 'पुरानी हिन्दी का कवि बताते हैं ।' श्री ए. एन. उपाध्ये ने कई विद्वानों के तर्कों का सप्रमाण खण्डन करते हुए योगीन्दु को ईसा की छठी शताब्दी का होना निश्चित किया है ।10 'योगीन्दु' के आविर्भाव सम्बन्धी इतने मतभेदों का कारण उनके सम्बन्ध में किसी प्रामाणिक तथ्य का अभाव है । श्री ए. एन. उपाध्ये को छोड़कर अन्य किसी ने न तो योगीन्दु पर विस्तार से विचार किया है और न अपनी मान्यता के पक्ष में कोई सबल तर्क ही उपस्थित किया है। किन्तु श्री उपाध्ये ने जो समय निश्चित किया है, उसको भी सहसा स्वीकार नहीं किया जा सकता । इसके दो कारण हैं । प्रथमतः योगीन्दु की रचनाओं में कुछ ऐसे दोहे मिलते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह सिद्धों और नाथों के विचारों से प्रभावित थे । वही शब्दावली, वही बातें, वही प्रयोग योगीन्दु की रचनाओं में पाये जाते हैं, जो बौद्ध, शैव, शाक्त आदि योगियों और तान्त्रिकों में प्राप्त होते हैं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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