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________________ अपभ्रंश - भारती-2 जुलाई, 1992 97 योगीन्दु मुनि • डॉ. वासुदेवसिंह अपने अन्तःप्रकाश से सहस्त्रों के तमपूर्ण जीवन में ज्योति की शिखा प्रज्वलित करनेवाले अनेक भारतीय साधकों, विचारकों और संतों का जीवन आज भी तिमिराच्छन्न है। ये साधक अपने सम्बन्ध कुछ कहना संभवतः अपने स्वभाव और परिपाटी के विरुद्ध समझते थे । इसीलिए अपने कार्यों और चरित्रों को अधिकाधिक गुप्त रखने का प्रयास करते थे । यही कारण है कि आज हम उन मनीषियों के जीवन के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक और विस्तृत तथ्य जानने से वंचित रह जाते हैं और उन तक पहुँचने के लिए परोक्ष मार्गों का सहारा लेते हैं, कल्पना की उड़ानें भरते हैं और अनुमान की बातें करते हैं । नामकरण श्री योगीन्दु देव भी एक ऐसे साधक और कवि हो गए हैं जिनके विषय में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है । यहाँ तक कि उनके नामकरण, काल-निर्णय और ग्रंथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है । परमात्मप्रकाश में उनका नाम 'जोइन्दु ' ' आया है । ब्रह्मदेव ने 'परमात्मप्रकाश' की टीका में आपको सर्वत्र 'योगीन्दु 2 लिखा है । श्रुतसागर ने 'योगीन्द्रदेव नाम्ना भट्टारकेण 3 कहा है । परमात्मप्रकाश की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में 'योगेन्द्र' शब्द का प्रयोग हुआ है । 'योगसार' के अन्तिम दोहे में 'जोगिचन्द' " नाम आया है । मुझे योगसार की दो हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के शास्त्र भाण्डारों में देखने को मिलीं । एक प्रति (गुटका नं. 54) आमेर शास्त्र भाण्डार में, दूसरी 'ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भाण्डार' में सुरक्षित है । इस प्रति
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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