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अपभ्रंश-भारती-2
नील पलास रत्त हुय किंसुय
मालइकुसुमु भमरु जिह वज्जइ, घरै घरै गहिरु तूर तिह वज्जइ । वियसियकुसुमु जाउ अइमुत्तउ, घुम्मइ कामिणियणु अइ-मुत्तउ । दरिसिउ कुसुमनियरु वेयल्लें, पहिए घरु गम्मइँ वेयल्ले । नील पलास रत्त हुय किसुय, भंतचित्तु जणु जाणइ कि सुय । तुरयहिँ अल्लहज्जि नच्चिज्जइ, नववसतु तरुणिहिँ नच्चिज्जइ । दावानलु पुलिंदजणु लायइ, सरधोरणि अणंगु गुणे लायइ । मदु-मंदु मलयानिलु वायइ, महुरसदु जणु वल्लइ वायइ । अह तहिँ सियपचमिहिँ वसतहो, नदणवणे देवउले वसतहो । फणमणितेओहामियजलणहो, करइ जत्त नायहो जणु जलणहो ।
जंबूसामिचरिउ 3.12
- जिस प्रकार भ्रमर मालती पुष्प से भयभीत (त्रस्त, निराश) हो गुंजार करने लगता है, उसी प्रकार घर-घर में गंभीर तूर बजने लगा । अतिमुक्तक का फूल जैसे खिलता है वैसे ही कामिनीजन अत्यन्त स्वच्छन्द होकर घूमने लगीं । विचकिल्ल के वृक्ष ने जैसे कुसुम-समूह को दर्शाया वैसे ही पथिक वेगपूर्वक घर जाने लगे । पलाश नीले (हरित) हो गये और किंशुक लाल, परन्तु भ्रान्तचित्त को लगा कि कहीं ये शुक पक्षी तो नहीं हैं । जिस प्रकार गीले चनों को दिखकर) घोड़े नाचने लगते हैं उसी प्रकार नववसन्त को (देखकर) तरुणियां नाचने लगीं । पुलिन्द (भील) दावानल लगाने लगे, कामदेव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगा । मन्द-मन्द मलयपवन बहने लगा
और लोग मधुर स्वर से वीणा (वल्लकी) बजाने लगे । अथानन्तर वहीं वसन्त की शुक्ल पंचमी के दिन, नन्दनवन के देवालय में रहनेवाले, अपने फणमणि के तेज से अग्नि के तेज को तिरस्कृत करनेवाले, ज्वलन नामके नागदेव की यात्रा के लिए लोग चले ।
- अनु., डॉ. विमलप्रकाश जैन