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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म:५] વિવર્ય શ્રીસુમતિવિજય [११० सं. १६८४ में सुमतिमेरु और विनयमेरु दोनोंका चतुर्मास बीकानेर राज्यके प्राचीन रिणी नगरमें हुआ। वहाँके संघके अनुरोधसे इन दोनों गुरुभाईयोंने 'देवराज-वछराज प्रबन्ध' नामक ग्रंथकी रचना चार खण्डोंमें की। अश्विन सुदि १५ को यह रास रचा गया, इसकी प्रति, वाचक सुमतिमेरुकी स्वयं लिखित मोतीचंदजी खजांचीके संग्रहमें है। इसके बाद सं. १६८९ बरहानपुरमें रचित 'वसवन्ना चौपाई प्राप्त है । अन्तिम रचना 'द्रौपदीसती चौपाई सं. १६९८ विजया दशमीको रची हुई मिली है। इसी बीचमें रचित आपके कई स्तवन प्राप्त हुए हैं, जिनमेंसे निम्नोक्त उल्लेखनीय हैं। (१) लूणकरणसर आदि जिन स्तवन, गाथा २१. सं. १६७५ काती सुदि ७. (२) पन्नवणा विचार स्तवन, गाथा सं. १६९२ पो. सुदि ७. साचौर (३) गोड़ी पार्व स्तवन, गाथा ७. सं. १६९४ वैशाखवदि ११. (४) घंघाणी पद्मप्रभजिन स्तोत्र, गाथा २७ सं. और भी आपके रचित अन्य कई स्तवन हमारे संग्रहके गुटके में हैं। संवत् १६९८ भाद्रवा वदि २ को पारख पंचायणने आपके पास कुछ नियम ग्रहण किये थे जिनकी नोंध हमारे उक्त संग्रह गुटकेमें है । इन सब उल्लेखोंसे सुमतिमेरु और विनयमेरु अच्छे मुनि और विद्वान थे, सिद्ध होते हैं । सं. १६६७ से ९८ तक उनका साहित्यका रचनाकाल हैं । 'जैन गुर्जर कविओ' भाग १. पृष्ठ ४७८ में विनयमेरुके 'हंसराज बच्छराज प्रबन्ध'का विवरण देते हुए कविके स्थान पर उनका नाम विनयमेरुके बदल विजयमेरु छप गया था इसका संशोधन मैंने तृतीय भागके पृष्ठ ९५४ में करवा दिया था। इस तीसरे भागमें उनके कण्वन्ना चौपाई 'का विवरण छपा है । इन दो रचनाओंके अतिरिक्त समस्त रचनाएँ मेरी शोधसे ही प्राप्त हुई हैं। और कुछ तो मेरे संग्रहमें ही हैं | सुमतिविजयने अपनी परम्परा देते हुए गच्छका नाम नहीं दिया; पर विनयमेरुकी रचनाओंमें गच्छका नाम खरतर और तत्कालीन खरतरगच्छके आचार्य यु० जिनचन्दसूरि, जिनसिंहसूरि, जिनराजसूरि और जिनसागरसूरिका उल्लेख मिलता है। विनयमेरुके शिष्य सुमतिविजयके अतिरिक मानजी नामक और थे जिनके रचित हिन्दी भाषाके दो वैदिक ग्रंथ बहुत ही महत्त्वके प्राप्त हुए हैं। पहला 'कविविनोद' सं. १७४५ वैसाख सुदि ५ सोमवारको लाहोरमें रचा गया और दूसरा १७४६ कातीसुदि २ को 'कविप्रबोध' नामक ग्रंथ रचा गया। यह दोनों रचनाएँ शुद्ध हिन्दी भाषामें हैं, इनमें मानजीने अपनेको “बीकानेरवासी" बतलाया है। मान कविकी और कई हिन्दी रचनाएँ मिलती हैं; • पर इस नामके कई कवि हो गए हैं। अतः जिनमें रचनाकालका उल्लेख नहीं है उनके रचयिताका निर्णय करना कठिन है । 'संयोग द्वात्रिंशिका' सं. १७३१ चेतसुदि ६ की रचना है। सम्भव है इसके रचयिता ये मान कवि ही हों। मान कविके दोनों ग्रन्थोंके कुछ आवश्यक पद्य यहां दिए जाते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.521730
Book TitleJain_Satyaprakash 1956 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1956
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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