________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१२० ]
www.kobatirth.org
શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ
'भट्टारक जिनचंद गुरु, सब गछको सिरदार, खरतरगछ महिमानिलौ, सब जनको सुखकार ॥ जाको गच्छवासी प्रग़ट, वाचक सुमतिमेर, ताकौ शिष्य मुनि मानजी, वासी बीकानेर || कयौ ग्रंथ लाहोर मैं, उपजी बुद्धकी वृद्धि, जो जन राखे कठ मैं, सो होवे प्रसिद्ध ॥ खरतरगच्छ प्रसिद्ध जगि, वाचक सुमतिमेर, विनयमेर पाठक प्रगट, कीये दुष्ट जग जेर ॥ ताको शिष्य मुनि मानजी, भयो सबनि प्रसिद्ध, गुरु प्रसादके बचनतैं, भाषा कीनी जन निद्ध ॥ कविप्रमोद ऐ नाम रस, कीयो प्रगटि यह मुख, जो नर चाहें याहिकों, सदा होय मन सुख | '
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इति श्रीखरतरगच्छीयवाचक श्री सुमति मे रुगणितद्वातृपाठक श्री विनेमेरुगणिशिष्य मानजी विरचिते भाषा - ' कविप्रमोदरस' ग्रन्थ |
उपर्युक्त उद्घणों में से पहले में मानजी अपनेको सुमतिमेरुका शिष्य बतलाते हैं और दूसरे में पाठक विनयमेरुका । पर लेखककी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि वे विनयमेरुके शिष्य थे। इस तरह सं. १७४५ तक सुमतिविजयके गुरुभाई मुनि मानजी विद्यमान थे, स्पष्ट होता है। इसके बादको परम्परा अभी अन्वेष्णीय है ।
' वाचनाचारिजा गुणनिलड, सो राजसार गणि नाम । तास सीस गुणआगरू, सर्वगुणे अभिराम |
[ वर्ष २०
अमेरिकन विद्वान्ने जो सुमतिविजय के गुरुका नाम विजयमेरु या विनयमेरु था? शंका की है वह किसी प्रतिमें विनयमेरुको विजयमेरु लिख देने या पढ़ देने से उद्भाबित हुई है । वास्तव में नाम विनयमेरु ही था ।
विक्रमपुरको 'कथासरित्सागर ' में जो उज्जैनी बतलानेका लिखा गया है वह भी ठीक नहीं है। विक्रमपुर, बीकानेर ही था । सुमतिविजय के गुरुभाई मानजी अपनेको स्पष्टतः बीकानेवासी ही लिखते हैं। इससे शंकाको कोई स्थान नहीं रहता । विनयमेरुने अपनी रचनाओंकी प्रशस्तियों में लिखा है
धर्म गुरु सानिध, दिन दिन सुख सुचंग | सुमतिमेरु गणिवर वह, विनयमेरु मनरंग । '
For Private And Personal Use Only