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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८०] શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ [ : १६ -विजययंत्र पट परिचयइसके दोनों बाजूमें वेलपत्तियोंका बोर्डर है जिसमें कमलके पुष्प बने हुए है। चित्रके ऊपर नीचे बोर्डर न होकर पाइपिंग मात्र है। ऊपरकी चित्रश्रेणीमें दाहिनेसे बांये सर्व प्रथम गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु और सरस्वतीके पांच सुन्दर चित्र हैं। मध्यमें विजयछत्र विराजमान है, जिसके उभयपक्षमें मयूरयुग्म सुशोभित हैं । तदुपरान्त दो देवियां तथा एक उद्यानका चित्र है जिसमें केला, खजूर आदिके वृक्ष तथा जलाशयके चारों ओर चार हाथी खड़े दिख़लाये हैं, एक हाथ अंतिम वृक्षके नीचे खड़ा सूड ऊंची किये फल तोड़ रहा है। इस पंक्तिके नीचे प्रतिष्ठा समयमें लिखी गयी अभिलेख पंक्ति है जिसकी नकल ऊपर दी जा चुकी है । दूसरी चित्रश्रेणीमें सर्व प्रथम देवी, वृक्ष, हाथी, एक देवीके पश्चात् छत्रधारी दाढीवाला पुरुष बैठा है जिसके समक्ष ठवणी और तदुपरि कोई वस्तु रखी है। उसके सामने एक हाथी व एक बैल है, उपरि भागमें एक पुरुष और स्त्री सामने विराजमान दिखाये हैं । तदनंतर विजयछत्रके नीचे मध्यमें दण्ड है जिसके दो पताकाएं बंधी हुई हैं, उनके दोनों ओर चन्द्र सूर्य तथा नीचे एक हाथी व द्रुमलताएं दिखायी हैं। उभय पक्षमें दो देवियां खड़ी हैं। तदनंतर हाथी पर छत्रधारी नरेश्वरादि बैठा है, फिर एक देवी व अश्वारोही है जिसके ऊपर छत्र है। फिर एक देवी-मूर्ति विराजित है जिसके हाथमें पूर्णकलश है। इसके अनंतर एक वृक्षका चित्र है जिसके नीचे शंख स्थापित है। अंतमें एक वृक्षके नीचे पंख फैलाये मयूर खड़ा है जिसकी चोंचमें पुष्पमाला धारण की हुई है। चित्रपटका मध्यम भाग यंत्राकोंसे परिपूर्ण है। इसके ठीक बीचमें ऊपर ही कार है। नीचेकी पंक्तिमें 'श्रीसर्वज्ञाय नमः'। फिर नीचे त्रिपुरायै नमः, त्रिपुरसुन्दर्ये ही नमः, श्रीत्रिपुरभैरवी हीँ नमः, फिर त्रिपुर विजया ह्रीं नमः, फिर चार पंक्तियों के बाद “क्रों" लिखा हुआ है। चतुर्थ पंक्ति में प्रथम तीन वृक्ष, फिर तीन देवियों जो कलश लिए हुए है। पंक्तिके मध्य में एक वृक्ष है जिसके दोनों ओर कलश हाथमें लिए दो देवियां बैठी हैं। तदनंतर ऐसी ही चार देवियां अलग अलग भवनोंमें बैठी है। ___सबसे नीचेकी पंक्तिमें नवग्रहोंके चित्र बने हैं, फिर ७ हाथी और ६ घोड़े सजे हुए विजययंत्र तंत्रविद्यासे सम्बन्धित है, इसलिए इस पटमें चित्रित भावोंका विशेष स्पष्टीकरण तो इस विषयमें ज्ञात व्यक्ति ही कर सकते हैं। परवर्ती विजययंत्र इससे भिन्न प्रकारके मिलते हैं। हमारे संग्रहमें विजययंत्र विधिकी हस्तलिखित प्रतियां भी हैं। इस यंत्रका मूल कहांसे और कब जैन समाजमें प्रचलित हुआ यह अन्वेषणीय है। इसके प्रारंभमें जो गणेशके साथ ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर भी चित्रित हैं इससे इसका मूल वैदिक तांत्रिक ग्रन्थोंमें मिलना संभव है। विशेषज्ञोंसे अनुरोध है कि वे एतद्विषयक अपनी जानकारी प्रकाशित करें। For Private And Personal Use Only
SR No.521712
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size11 MB
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