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અંક ૭ ] ચિતૌડ કે પ્રાચીન જૈન શ્વેતાંબર મદિર [ ૨૦૩ चितौड़से जैनोंका प्राचीन सम्बन्ध___जैन समाजका चितौडसे बहुत प्राचीन सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध श्री सिद्धसेन दिवाकरसे भी पहले तक जा पहुंचता है, जिनका समय वि० की ५ वीं शताब्दी है। इसके पश्चात् पूज्यपाद हरिभद्रसूरिजीका निवास भी यही होनेका उल्लेख पाया जाता है। १२ वीं शताब्दी में यहां चैत्यवासका प्राबल्य प्रतीत होता है। श्री जिनवल्लभसूरिजीने उसका प्रबल विरोध किया और उनके उपदेशसे यहांके श्रावक साधारणने महावीरस्वामीका विधि चैत्यालय निर्माण किया था। इस मंदिरमें विधि मार्गके प्रदर्शक सूरिजीके संघपट्टकादि ग्रन्थ शिलापट्ट पर उत्कीर्ण किये गये थे। श्री जिनवल्लभसूरिजी एवं उनके पट्टधर श्री जिनदत्तसूरिजी (सं. ११९९) का पदोत्सव भी यहीं हुआ था। उपकेशगच्छाबन्धके अनुसार चक्रेश्वरीदेवीको वाणीसे कृष्णर्षिने यहां आकर किसी व्यक्तिकों दीक्षित किया व अध्ययन कराया। चैत्यपरिपाटी के अनुसार यहां खरतर, तपा, अंवल, नाणावाल, पल्लीवाल, चित्रावाल, पूर्णिमा, मलधारी गच्छोंके पृथक् पृथक् जिनालय थे। यहांके मंदिरोंकी संख्या, प्रतिमाओंकी संख्या आदिसे भी यहांकी घनी एवं धनी जैन वस्ती एवं जैन प्रभावका सहज अनुमान किया जा सकता है। ५ वीं शताब्दिसे १६ वीं शताब्दीके शेष तक यहांका उन्नत काल प्रतीत होता है, यद्यपि, १४ वीं शताब्दीमें अलावदीनके आक्रमणसे कुछ क्षति हुईथी, फिर भी १५ वीं शताब्दीमें ही हम फिर यहांको जाहोंजलाली पाते हैं। १७ वीं शताब्दीमें समराट अकबरके आक्रमणके पश्चात् चितौड अपना प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त नहीं कर सका । आज भी यहां दुर्ग पर एवं नीचे जैनोंकी वस्ती है, मंदिर हैं, पर उनकी स्थिति साधारण है
और वे अपना प्राचिन गौरव भूल चूके हैं। ... उपर्युक्त ३२ जिनालयोंमेंसे अब तो १०-१५ मंदिर रहे होंगे अवशेष नष्ट हो चूके हैं, पर जो बच पाये हैं उनकी सुव्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र करनी चाहिये । इन प्राचीन मंदिरोंके अतिरिक्त दुर्ग पर इन मंदिरोंके कुछ नीचे एवं पहले १९ वीं शताब्दीके बने हुए दो तीन मंदिर और हैं । एक प्राचीन जैनमंदिरमें तो देवीकी मूर्ति पूजी जाने लगी है। दुर्गके नीचे शहरमें भी पीछले समयके बने हुए ४-५ मंदिर हैं। ओझाजीके कथनानुसार शहरप्रवेश करनेकी पुलमें भी कई जैनमंदिरोंके पत्थर लगे हुए हैं। इन सब प्राचीन अवशेषकी भलीभांति खोज करके उनके संबंधमें एक महत्वपूर्ण चितौडका जैन इतिहास प्रकाशित करना भूमिसे जो प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं वे अधिकांश खरतर गच्छकी है एवं प्रतिष्ठाका समय सं. १५९५-९६ तकका है, अतः सं.१५७३ के बाद भी प्रतिष्ठायें होती रही सिद्ध होता है। पता नहीं ये मूर्तियें उपरोक्त ३२ मंदिरोमेंसे किसी मंदिरकी ही हैं या इनसे भिन्न अन्य मंदिरकी।
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