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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [વર્ષ ૧૨ इंडिया आफिस लाइब्रेरी के संस्कृत प्राकृत हस्तलेखों की कैटालाग (पुस्तक २, भाग २) में वे इसे “जैन डायग्राम" कहते हैं। प्रो० हीरालाल रसिकदास कापडिया भाण्डारकर इंस्टिट्यूट को कैटालाग (पुस्तक १७, भाग २, परिशिष्ट, पृ० १२) में लिखते हैं कि गुजराती में इस चिह्न को " भले ” पढते हैं। मुनि श्री कान्तिसागर जी अपने एक पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि जनश्रुति के अनुसार इस सारे चिह्न ॥ ॥ को ऋद्धि सिद्धि भोले मौडी विलिक्या पढते हैं । यद्यपि यह सब कथन जनश्रुति के आधार पर है, तथापि नीचे के उद्धरणों से इस का समर्थन होता है। हिन्दी, गुजराती, पंजाबी आदि में एक प्रकार की कविता होती है जिसके प्रत्येक पद्य का आदि वर्ण अपनी वर्णमाला के क्रम से होता है। एसी कविताएं हिंदी में अखरावट, बावनी, बारह अखरी, पंजाबी में पैन्ती, गुजराती में कक्क, मातृका, और फारसी में सीहर्फी नाम से प्रसिद्ध हैं। प्राचीन गुर्जर काव्य-संग्रह ( गायकवाड ओरियंटल सीरीज नं० १३) में ऐसो चार कविताएं प्रकाशित हुई हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है: १. सालिभदकक (पृ. ६२, पद्य संख्या ७१) । पहला पद्य--भलि भंजणू, कम्मारि बल वीरनाहु पणमेवि।। पउमु भणइ कक्खरिण सालिमद्दगुण केइ ॥१॥ इसके बाद ६६ पद्य क, का, ख, खा, ग, गा, आदि से प्रारम्म होते हैं। इनमें ङ), 'त्र' औरण' के लिये 'न' आया है। इसी प्रकार श के लिये स । फिर चार पद्य क्ष, क्षा, म और इ से आरम्म होते हैं। २. दुहामातृका (पृ० ६७, पद्य संख्या ५७ )। पद्य १-भले भलेविणू जगत गुरु पणमउं जगह पहाणु । जासु पसाई मूढ जिय पावइ निम्मल नाणु ॥१॥ पद्य २-६ ओं न म सि ध (ओं नमः सिद्धम् ) से प्रारम्म होते हैं । पद्य ७-२२ तक का आदि वर्ण अ, आ, इ, ई, उ ऊ, रि, री, लि, ली, ए ऐ, ओं, औ, अंअ है। पध २३-५५ तक का आदि वर्ण क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ आदि है। भणेषिणु पाठ होणा चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.521626
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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