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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૨ ] જૈન પ્રતિ મેં આરમ્ભ ઓર સમાપ્તિ કે ચિહ્ન [ ૫ कैद कर लिया गया। ऐसा सुनने में आता है जब हिमू पकड कर अकबर के सामने लाया गया तब बैरामखाने अपनी तलवार अकबर के हाथमें देकर कहा "तुम अपने हाथसे उस काफिरका सर उडा दो और गाजी बनो"। अकबरने उस तलवार से हेमका सर छुकर उसे रख दिया। उसके बाद बैरामखांने उस तलवार को उठा लिया और उसीसे बेचारे हेमू का सर उडा दिया। इधर आदिलसाह एक लडाई में मारा गया। (हिन्दुस्तान का इतिहास पृष्ठ १५५) આ પરિચયમાં હેમુના વ્યકિતત્વનો સ્પષ્ટ એકરાર છે. તે એક વાર દિલ્લીને બાદશાહ બને છે, એ નિઃસંશય બીના છે. એકંદરે ૮૦૦ વર્ષને એ ઇતિહાસ જોતાં એ સ્પષ્ટ જણાય છે કે એ ૮૦૦ વર્ષમાં એક જ “હિન્દુ” એવો જભ્યો કે જેણે દિલ્લીમાં ફરી એક વાર હિન્દુ રાજ્યની પ્રતિષ્ઠા ४ ता. सामवीरनु नाम छ "डेभु पायो." શું દેશની આઝાદી ઈચ્છનારાઓ આ હેમુ વિક્રમાદિત્યને ભૂલી શકે ખરા ? હિન્દ આ નરવીરને ઇતિહાસમાં અમર બનાવે એ જ, હિન્દીઓની સાચી કૃતજ્ઞતા છે. जैन प्रतियों में आरम्भ और समाप्ति के चिह्न (लेखक-डा० बनारसीदासजी जैन ) हस्तलिखित जैन प्रतियों के आरभ्म में, चाहे वे श्वेताम्बर हों या दिगम्बर, एक चिह्न होता है जो देखने में देवनागरी के अङ्ग ८ या ९ के सदृश होता है। कभी इस अङ्क के नीचे दायें सिरे पर हलन्त चिह्न लगाकर द, र्द भी बना दिया जाता है। फिर इस के दाईं ओर एक बिन्दु और दो दण्ड होते हैं। कभी बाईं ओर भी दण्ड रहते हैं। इस समग्र चिह्न के अनन्तर ओं, अहँ, सिद्धं आदि शब्द तथा श्रीवीतरागाय नमः आदि नमस्कार भी मिलते हैं। जैन प्रतियों और लेखों में यह चिह्न लगभग एक हजार बरस से पाया जाता है। इसकी आकृति से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह देवनागरी लिपि का कोई अक्षर नहीं है । न ही निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि इसका मूल रूप क्या था। मुद्रित पुस्तकों में इस चिह्न के छापने की प्रथा नहीं है। उन में यह चिह्न और प्रायः ओं, अर्ह, श्रीवीतरागाय नमः आदि भी छोड दिये जाते हैं। परंतु हस्तलिखित प्रतियों में यह चिह्न प्रायः सभी में पाया जाता है। शायद सौ में से एक आध प्रति में न मिलता हो। इस का ॥र्द०॥ यह रूप सबसे अधिक मिलता है। कभी २ बायें हाथ पहली रेखा के नीचे का सिरा ए की भांति दाई ओर को टेढा हो जाता है । कहीं २ और भी थोडासा भेद होता है। ब्राह्मण प्रतियों में यह चिह सर्वथा नहीं होता। सबसे पहले शायद प्रो० ए० बी० कीथ का ध्यान इस चिह्न की ओर गया। For Private And Personal Use Only
SR No.521626
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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