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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७] નિર્ભઃ-તત્વાલકે विहितक्रियया जातं धर्म तकविदो विदुः । आत्मानुकूलमर्थ तु धर्ममन्ये किलोचिरे ॥ सम्यग् दृष्टि, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चरित्र धर्म है अर्थात् माक्षका मार्ग है ऐसा धर्मजानने वालों ने कहा है । यह धर्म का सर्वसम्मत सर्वथा ग्राह्य लक्षण है । क्योंकि विश्व के सभ्यशास्त्र में जितने धर्म के लक्षण अल्प वा अधिक रूप से कहे गये हैं सब का इसी में समावेश हो जाता है अतः सदृष्टि ज्ञान चारित्र का नाम धर्म है,यह धर्म के सर्वश्रेष्ठ लक्षण हैं। क्यों कि संसार में जितने भी कार्य हैं प्रत्येक कार्य को प्रायः पहले देखा जाता है या विचारा जाता है, इसके बाद उस में क्रिया की जाती है तब वह कार्य सम्पन्न होता है, अतः मोक्ष जैसे सुदुर्लभ कठिनतम कार्य के सम्पादन करने के लिये तो सब तरह से अच्छी दृष्टि चाहिये और सब तरह से सुन्दर उत्तम प्रज्ञा चाहिये तथा हर तरह से उत्तमोत्तम आचरण चाहिये; तभी वह सफल हो सकता है। जिसमें अधूरी दृष्टि, अधूरा ज्ञान और अधूरा आचरण रहेगा वह किसी तरह भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता, चाहे दुनिया की अन्य कोई सम्पत्ति उसे भले प्राप्त हो जाय । अतः सिद्ध हो गया कि सद्दृष्टि ज्ञान चारित्र मोक्ष मार्ग का साधक है और उसे ही धर्म कहते हैं। शानकारोंने भी-" सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" अर्थात् सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है, ऐसा कहा है । बहुतेरेने तो लघुता के लिए "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" अर्थात् ज्ञान और क्रिया इन दोनों से मोक्ष होता है ऐसा कहा है । यह भी ठीक ही है, और पूर्व लक्षण के अन्तर्गत है, क्योंकि ज्ञान और क्रिया से मोक्ष मानने वाले ज्ञान के अन्तर्गत ही दर्शन को भी मानते हैं इस लिये कुछ भी विरोध नहीं। दूसरी बात यह कि प्राचीन शास्त्रकारोने लाघव को अधिक अपनाया है, इसीलिए उन लोगों में यह कहावत लागु होती है कि-"एकमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते प्राचीनाः शास्त्रकाराः।" वास्तव में प्राचीनोंकी सूत्ररचना अल्पाक्षर और पूर्णप्रमेय युक्त बह्वर्थक है । इसी लिए तो आज उनके छोटे छोटे सूत्रों पर विशाल ग्रन्थरूप भाष्य, चूर्णी, टोका आदि देखे जाते हैं। सम्कग् दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्ष मार्ग है और उसे ही धर्म भी कहते हैं अर्थात् मोक्ष का मार्ग धर्म है। मोक्षमार्ग के लिए अन्य तरह से भी जो कुछ प्रतिपादन किया गया है वह इससे अलग नहीं, केवल कहने में भले ही अलग प्रतीत होता हो। जैसे ठाणाङ्ग सत्र में कहा है कि... "दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादियं अणवयग्गं दीहमद्धं चारतर 'संसारकंतारं वीतिवत्तेज्जा । तंजहा-विजाए चेव चरणेण चेव । -(स्थानांगसुत्र, स्थान २, उद्देश ) For Private And Personal Use Only
SR No.521621
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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