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निर्भान्त-तत्त्वालोक [दान-शोल-तप-भावनादिधामिकविशिष्टव्याख्यानरूपो निषन्धः ] प्रणेता-पूज्य मुनिमहाराज श्रीवल्लभविजयजी, बीकानेर
[ गतांकसे क्रमशः] और भी कहा है कि
ऊर्ध्वबाहुविरौम्येष न च कश्चिच्छणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ॥ अर्थात् हे लोगों ! मैं अपने बाहुओं को खूब ऊंचे उठाकर जोर से चिल्लाता हूं, लेकिन मेरा कोई नहीं सुनता; अर्थात् मेरा चिल्लाना अरण्यरुदन है । क्यों कि धर्म से अर्थ होता है
और धर्म से ही काम भी होता है अतः वह (मनोवाच्छितदायक, कल्पतरुकल्प) धर्म लोगों के द्वारा क्यों नहीं सेवा जाता है ? ___ इसी तरह धर्म के अनेक तरह के वर्णन शास्त्र में भरे पड़े हैं, शाम धर्ममय है अथवा धर्म की व्याख्या शास्त्र है यह कहे तो भी कुछ अत्युक्ति नहीं, धर्म का विषय अति गहन गंमोर और अत्यन्त दुरूह है । पहले कहा जा चुका है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पदार्थ मनुष्य प्रयोजनीय हैं और उनमें सब से उत्तम परम पुमर्थ और सुदुर्लभ मोक्ष नाम का चौथा पदार्थ है। किन्तु उस मोक्ष की भी प्राप्ति धर्म से ही होती है और अर्थ तथा काम की भी प्राप्ति धर्म से ही होती है अतः यह सवाल सामने खड़ा होता है कि जिसकी बड़ी बड़ी व्याख्यायें हैं और जो जीवनसंग्राम में विश्वविजय पानेवालो बड़े महत्त्व की चीज है वहें क्या है ? कैसा है ? वही धर्म है, तो उसका कुछ विशेष लक्षण उपस्थित किया जाता है।
अतोऽत्र प्रथमं वक्ष्ये श्रूयतां धर्मलक्षणम् । सद्दृष्टिशानचारित्र्यं धर्म धर्मविदो विदुः ॥ संप्रशतो द्विधा धर्मः श्रुतधर्मस्तथैव च । चारित्रधर्मो ह्यपरः स्थानाङ्गे सर्ववेदिभिः ॥ [धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टमहिंसा संयमस्तपः।। देवा अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः ॥] छाया दशवैकालिकेऽप्येवं धर्मलक्षणमुत्तमम् । लोकाणां हितकामाय प्रोक्तं भगवताऽर्हता ॥ बानं च दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा । मोक्षमागोऽयमुद्दिष्ट उत्तराध्ययने ।जनैः ॥ धारणाद्धर्ममित्याहुज्ञ धातोः सुशाब्दिकाः । नोदनालक्षणो धर्मः प्राहुमीमांशका इति ।
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