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निर्धान्त-तत्त्वालोक [ दान-शील-तप-भावनादिधार्मिकविशिष्टव्याख्यानरूपो निबन्धः]
प्रणेताः-पूज मुनिमहाराज श्रीवल्लभावजयजी, बीकानेर । करामलकवद्विश्वं कलयन्तं शिवश्रिया । शरण्यं सर्वलोकानां सर्वशं समुपाश्रये ॥ अनन्तलब्धिनिधये स्याद्वादाम्बुजभास्वते ।
सर्वविद्यैक गुरवे गौतमस्वामिने नमः ॥ . भावार्थः-कल्याणरूपी श्री ( सम्पत्ति वा शोभा ) से संसार को करतलमें स्थित आमलेके जैसे कलना ( गणना) करनेवाले, सभी लोगों के शरण लायक सर्वज्ञ भगवानका अच्छी तरह आश्रय लेता हुं। अनन्त लब्धि (ज्ञान) के भण्डार, स्याद्वादरूपी कमल के विकास करने में सूर्यसमान सब विद्याओं के एक ही गुरु श्री गौतमस्वामी को प्रणाम हो।
अथ विश्वदुरध्वानां साधूनां सितवाससाम् । नामाहद्धर्मधतृणां दद्यादानादिदुहृदाम् । अधिकेष्वपि सूत्रेषु द्वात्रिंशत्सूत्रमानिनाम् । द्वादशाङ्गदुरूहार्थतात्पर्यभ्रान्तचेतसाम् ॥ कृते नियसपथप्रदर्शी युक्तिसंगतः ।
निर्धान्ततत्त्वालोकाख्यो निबन्धोऽयं प्रणीयते ॥ .. विश्वकुपथ में चक्कर खानेवाले, दया दान आदि सत्कार्य के दुश्मन, अधिक ( उपलब्ध ४५) आगमों-सूत्रों-के होते हुए भी केवल ३२ सूत्रों के माननेवाले, द्वादशांगी के कठिन तात्पर्यार्थ में भ्रान्त चित्तवाले श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले नामधारी जैन साधुओं के लिये कल्याणपथ को दिखानेवाला युक्ति आगम प्रमाण से पूर्ण यह 'निर्भ्रान्त-तत्वालोक ' नामका निबन्ध रचा जाता है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव तत्त्व हैं । सन्देहरहित इन नवों तत्त्वों के प्रकाश को “ निर्धान्त-तत्त्वालोक " कहते हैं । अथवा सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र के तत्त्वों का जिसमें प्रकाश ( निरूपण ) हो उसे 'निर्धान्त तत्वालोक' कहते हैं । किंवा मिथ्या-ज्ञान-दर्शन-चारित्र का खण्डन एवं जीवरक्षा अनुकम्पादान आदि के विरोधी सिद्धान्तों का सयुक्तिक सोपपत्तिक शास्त्रीय प्रमाणों के द्वारा इस ग्रन्थ में खण्डन किया जाता है इस लिए इसका नाम “निर्धान्त तत्त्वालोक" रक्खा है।
भक्त्या यत्स्मरण सुशान्तकरणं दुष्कर्मनिःसारण माङ्गल्याभरणं विपत्तिहरणं हृत्स्वच्छताकारणम् । निर्धान्तं शुचि सर्वलोकशरणं शोकाम्बुधेस्तारणम् ल श्री वोरजिनस्तनोतु भवतां चित्ते मति निर्मलाम् ॥
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