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નિર્ભ્રાન્ત-તત્ત્વાલેક
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भक्तिपूर्वक जिनका स्मरण ( नामोच्चारण, जप ) सुख शान्ति को करता है, दुष्ट कर्मों को निकालकर बाहर फेंकता है, मंगल के अलंकार है, विपत्तिओं के हरण करनेवाला है, शंकारहित है, पवित्र है, सब लोकके शरण है, शोकरूपी समुद्रसे अर्थात् सांसारिक जनन मरण क्लेशरूप सागर से तारनेवाला है, वे भगवान् श्री महावीर जिनेश्वर आप लोगों के हृदय में निर्मल ( धर्म ग्रहण करनेवाली ) बुद्धि को विस्तार करे ।
सूचीकटाहन्यायेन वक्तव्यासु बहूक्तिषु । प्रथमं जीववैशिष्ट्यं धर्ममेव निरूप्यते ॥ धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चत्वारः पुरुषार्थकाः । मनुष्याणां कृते पूर्वैर्धर्मविद्भिरुदाहृताः ॥
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" सूचीकटाह 'न्याय से बहुत कहने योग्य विषयों में पहले जीव - विशिष्टत्वरूप धर्म का ही निरूपण किया जाता है ।
तर्कवादियों के अनेक सिद्धान्तों के अन्दर ' सूचीकटाह न्याय नामका भी एक सिद्धान्त है । इस के मानी यह है कि सूई और कडाह ये दोनों चीजें बनानी हैं, तो पहके सूई बना ली जाय या कडाह हा बनाया जाय ? यह शंका हो सकती है। ऐसी शंका को निवारण करने के लिये तर्ककर्कश बुद्धिशाली न्यायशास्त्रविशारदोंने " सूचीकटाह न्याय "का सन्निवेश किया है। चूंकि इस विशाल विश्व प्रपञ्च में लाघव सभी जगह अपेक्षित है अतः पहले सूई का बनाना ही अच्छा होगा और बाद में कटाह का बनाना अच्छा होगा ।
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इसी लिये पहले सूची शब्दा का प्रयोग किया गया है और बाद में कटाह शब्द का । प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्द ( आगम ) ये चार प्रकार के प्रमाण कहे गये हैं, इन प्रमाणों के द्वारा पदार्थों को अच्छी तरह देखने का नाम (6 न्याय " है । संस्कृतमें भो न्याय शब्द की व्युत्पत्ति इसी तरह है, जैसे -- " प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्याय:" इसका भावार्थ ऊपर के समान ही है, अतः सूचीकटाह न्याय से प्रथम धर्मका ही कुछ लक्षणादि कहा जाता है । क्यों कि प्रकृत निबन्ध में दान, शील, तप और भावना आदि के विषय में बहुत कुछ कहना है । जी मात्रमें किसी विशेषरूप से रहनेवाला धर्म है, इसी लिये धर्म को जीववैशिष्ट्य कहा गया है । मनुष्ययोनिके लिए तो इस लोकमें कल्पवृक्ष, चारु चिन्तामणि, मनवांछितदायक, सर्वथा उपास्य देव, सर्वस्व धर्म ही है। शास्त्रकारों ने भी प्राकृतिक साधारण धर्मों को अनेक जीवें। में सामान्य दृष्टि से देखते हुये विशेष दृष्टिसे मानव जाति के विशेष धर्मको ही दर्शाया है ।
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आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्यशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण होना पशुभिः समानाः ॥
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