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सं. १६७३ की प्लेग लेखकः-प्रो. मूलराजजी जैन.
जब सन १९०० के लगभग भारत वर्षमें प्लेगने अपना मुह दिखाया तो लोगोंने समझा कि यह महामारी भारतमें पहली बार पड़ी है और पश्चिमसे आई है । इसी लिये बाहरसे आने वाले यात्रियों को पहले कई दिन तक कारंटीन आदिमें रखा जाता था, फिर नगरमें प्रवेश करनेकी आज्ञा मिलती थी। विदेशसे आई हुई डाकको भी धूपमें सुखाकर खोलाजाता था । परंतु वास्तव में यह महामारी भारतके लिये नई न थी। यहां यह तीन सौ बरस पहले भी पड़चुकी थी। इस बातका उल्लेख जैन कवि बनारसीदासजीने "अर्धकथा" नाम अपनी आत्मजीवनीमें किया है। जैसेसोलह सै तिहत्तरे (१६७३) साल । अगहन कृष्ण पक्ष हिम काल ॥५६०॥
इस ही समै ईत बिस्तरी । परी आगरै पहिली मरी। जहां तहां भागे सब लोग । परगट भया गांठिका रोग ॥ ५६३ ॥ निकसै गांठि मरै छिन मांहि । काहूकी बसाय कछु नांहि ।
चूहे मरहिं बैद मरी जाहिं । भय सौं लोग अन्न नहि खांहि ॥५६४॥ कविवर बनारसोदासके कथनके समर्थनमें भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी भी एक महामारीका निर्देश करते हैं जिसके कारण काशीमें भारी जन-हानी हुई। इनका समय विक्रमको २७ वीं शताब्दी है । वे लिखते हैंसंकर-सहर सर नर नारि बारिचर, बिकल सकल महामारी मांजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात, भभरि भगात जल थल मीचु मई है। देव न दयालु महिपाल न कृपालु चित, बनारसी बाढ़ति अनीति नित नई है। पाहि रघुराज पाहि कपिराज रामदूत, रामहू को बिगरी तुहीं सुधारि लई है ॥
[कवितावली, उत्तर० १७६ ] इसी प्रकार फासी ग्रन्थोंमें भी इस प्लेगका वर्णन मिलता है। इकबाल नामा जहांगीरी में लिखा है कि जलूस सन् ११ (=सं. १६७३) में एक घोर महामारी पडी। पहले पहल यह पंजाबमें शुरू हुई । लाहौरमें हिन्दू मुसलमान मरने लगे। वहांसे सरहिन्द होती हुई दिल्ली पहुंची। इसके आनेका चिह्न यह था कि पागलोंकी तरह घूमते हुए चूहे दीवार, चौखट आदिसे टकराकर मर जाते थे। लोग घर बार छोड़ कर बाहर चले गये । मृतकको अथवा उसके कपडे आदिको छूनेसे यह रोग लग जाता था। एक २ घरमें दस २ पंदरह २ आदमी मरे । यह महामारी अत्यन्त भयानक थी। वाकिआते जहांगीरी में जुलूस सन् १३ में आगरेमें प्लेग फैलनेका वर्णन है।'
उपर्युक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि सं० १६७३ की महामारी प्लेग या ताऊन थी जिसके भयावह और नाशक परिणामसे लोग भलीभांति परिचित हैं ।
१ इलियट : ९ हिस्टरी ऑफ़ इंडिया, भाग ६, पृ० ३५६, ४०५-६ ।
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