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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४१६ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष ८ जायगा क्योंकि वो भाव असिद्ध अवस्था का है वर्तमानमें तो है ही नहीं 'इसीसे भविष्य में होनेवाले सम्राटका वर्तमान युवराज अवस्थामें ही सम्राट मान कर सम्मान नहीं किया जाता' यह भी आपका कथन सूरिजीके सिद्धान्तके अनुकूल ही है, क्यों कि सम्राटके पुत्र मात्र युवराजकी हैसियत से आदरको प्राप्त नहीं करते, केवल अग्रिम पुत्र हो इस आदरका अधिकारी होता है । इसका मतलब तो यह हुआ को उसे भावी सम्राट मान कर ही उसका आदर होता है और कुछ नहीं, अन्यथा सब पुत्रोंका समान आदर होना चाहिए। इससे भावी तीर्थकरको जो वन्दन करता है वह वर्तमानमें तीर्थंकर है ऐसा समझकर नहीं किन्तु भावि तीर्थंकर समझकर ही । ऐसे ही 'न दो चार दिनके बाद दीक्षित होनेवाले वैरागीको साधुकी तरह वंदना - नमस्कार कीया जाता है' यह बात भी हमारे अनुकूल ही है, क्योंकि लोग उस समय उस वैरागीकी पूर्वके समान उपेक्षा नहीं करते, किन्तु उसे भावी साधु समझकर उसका आदर ही करते हैं। इसलिये 'जब कि इसी भवमें दो चार दिन बाद ही होनेवाले सम्राट, साधु अथवा तीर्थंकरको पहलेसे वैसा मान नहीं दिया जाता।' इत्यादि जो तुमने कहा है, वह असिद्ध ही है अतः आदर करनेमें जनताका भाव ही मुख्य निमित्त है इसलिये तुम्हारा भरतजी विषयक प्रश्न नहीं हो सकता है । अन्तकृत् दशांग में प्रसंग उपस्थित होने पर भी ऐसा ( वंदनादिका) उल्लेख नहीं होना सूरिमत के लिये स्पष्ट बाधक है ।" यह लिखना भी अयुक्त है, क्योंकि सुरिजीने कृष्णको वंदन किया है ऐसा लिखा ही नहीं है । और प्रसंग उपस्थित होने पर भी नहीं कहने मात्रसे वस्तुका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है । ऐसी भी अनेक बात हैं कि जिसमें किसी पुरुषका विस्तारसे वर्णन होने पर भी मातपिताका नाम तक बताया गया न हो। इससे उनके मातापिता नहीं थे यह कभी सिद्ध नहीं हो सकता है । एवं च भवांतर में होनेवाले महापुरुषको पहिलेसे वंदनानमस्कार करनेका नियम न होनेसे भरतके मरीचि -वंदनकी घटनाको अपवाद रूप नहीं कहा जा सकता है । प्रत्युत्त महापुरुषके चारों निक्षेप वंद्य होनेसे पहिले भी वंद्यता ही शास्त्रसिद्ध है । 86 ८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , सूरिजी याद अपने ही उदाहरणको समझ लें तो इसीसे समाधान हो सकता है यह कथन निरस्त है । डोसीजी अपने लेखको बराबर समज ले तो सूरिजीके आक्षेप बराबर मालूम हो जाय क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्तिमें भाव ही कारण है यह बात आपके लेखोंसे भी सिद्ध कर चूके हैं । " लक्ष्मणजी भाईकी मृत्यु सुनकर मरे इस तरह सभीको मरनेका कहनेवाले तो सूरिजी जैसे अकलमंद ही हो सकते है" ऐसा लिखना भी अकलमंदांका ही काम है, क्योंकि सूरिजीने सबको मरनेका कहा ही नहीं किन्तु भावको जो निमित्त नहीं मानते हैं उनको ऐसा कहना पडेगा यह आपत्ति दा है । 'भरतजीने भावोंके बहाव में इत्यादि लेख भी अयुक्त है । क्योंकि वर्तमान जो अवस्था वह उपेक्षणीय है इस बातको सिद्ध किये बिना हो यह लिखा है । > (क्रमशः ) For Private And Personal Use Only
SR No.521600
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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