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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१४] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष आगे आप लिखते हैं कि-" इसके लिये यह भी आवश्यक है कि उसका जीवन आन्तरिक और बाह्य अवनुणोंसे रहित हो जावे तब वह व्रत रखे, शरीरको कष्ट दे औरत पस्या करे. "। अवगुणोंसे रहित होने पर व्रत रखना, शरीरको कष्ट देना, और तपस्या करना किसी भी धर्मकी मान्यता नहीं हो सकती; व्रत रखना, शरीरको कष्ट देना और तपस्या करना ये सब कार्य आन्तरिक और बाह्य दुर्गुणों को दूर करनेके साधन हैं। आगे चलकर आपने यह भी लिखा है कि" महावीर मूर्तिपूजाके विरोधी थे। " हम यहां पर लेखकसे पूछते हैं कि आपने ऐसा लिखने की धृष्टता किस आधार पर की ? जैनियोंकी मूर्तिपूजा अत्यन्त प्राचीन है, प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्तीने जैन शास्त्रानुसार अष्टापर पर्वत पर चौवीस बिंबोंकी प्रतिष्ठा करवाई थी, इसके अतिरिक्त गुजरात देशमें पालीतानामें जैनियोंका जो सिद्धाचल तीर्थ है वह अत्यन्त प्राचीन होकर जैन सूत्रोंमें अनादि तीर्थ माना है । ऐसी स्थिति में महावीरको मूर्तिपूजाका विरोधी बताना बिलकुल ही असंगत है । जैनियोंके मंदिर पर्वतों व सुनसाने जंगलोंमें ही नहीं वरन् शहरों गांवों आदि सब स्थानों पर पाये जाते हैं । लेखक महोदयने यदि भ्रमण करके वास्त विकताका पता लगाया होता तो वे ऐसा लिखनेका कष्ट कभी न करते । आगे चलकर आपने लिखा है कि- दक्षिण के जैनी पहिलेकी भांति अपने शरीरको नंगा रखते थे?" क्या ही अविवेकतापूर्ण लेख है ! जैनी कभी भी नंगे नहीं रहते थे और न रहते हैं । किन्तु भगवान महावीरके दो प्रकारके साधु (शिष्य) थे ? जिनकल्पी यानी वस्त्ररहित जो जंगलोंमें रहकर आत्मचिंतन करते थे, २ स्थविरकल्पी यानी वस्त्रधारी जो नगरोंमें विचरकर गृहस्थों को उपदेश दिया करते थे जैसा कि आजकलके श्वेतांवर साधुसाध्वी होते हैं । श्वेताम्बर after भेदोंके विषय में जो मत लिखा गया है वह भी बिलकुल असत्य है । आपने यह भी लिखा है कि “श्वेतांबर अपनी मूर्तियोंको स्वच्छ वस्त्रोंसे आच्छादित करते हैं।" जैन चाहे श्वेतांवर हो या दिगंबर अपनी मूर्तियों को वस्त्रोंसे आच्छादित कभी नहीं करते । यदि लेखकने कभी जैन मंदिरमें जानेका कष्ट किया होता तो पता चलता कि सत्य क्या चीज है । उपरोक्त उद्धरणोंसे पाठकोंको विदित हो गया होगा कि उक्त इतिहासके लेखक द्वारा जैनधर्म व महावीरके सिद्धान्तोंके प्रति विष उगलनेका कैसा प्रयत्न किया गया है । ऐसी ही पाठ्य पुस्तकों द्वारा जैन समाजको भावी पीढी पर जैनधर्मके प्रति अश्रद्धा के अंकुर उत्पन्न करनेका कतिपय अजैन लेखकों द्वारा प्रयास किया जाता है । यह पुस्तक राजपूताना वोर्डले पाठ्य पुस्तक के रूपमें स्वीकृत की हुई है । भारतवर्ष में जैन विद्वानों व इतिहासज्ञोंकी कमी नहीं है, परन्तु वात केवल इतनी है कि इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट नहीं हो पाया है, अन्यथा ऐसी पुस्तकोंका विरोध अवश्य होता । में गत कई वर्षोंसे इस पर For Private And Personal Use Only
SR No.521600
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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