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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा જેન વિદ્વાન ધ્યાન દે [४१३ आगे चलकर आप लिखते हैं कि-" तीस वर्षकी अवस्थामें घर बार छोड. कर महावीर बनको चले गये और बारह वर्ष तक बडे बडे साधु महात्माओंके सत्संगमें रहकर मुक्तिकी खोज करते रहे।" जैनियोंके तीर्थकर किसीको गुरु नहीं बनाते, वे स्वयंबुद्ध होते हैं, जन्मसे ही मति, श्रत, और अवधिज्ञान युक्त होनेसे उन्हें गुरुकी आवश्यकता नहीं होती। मुक्तिको खोज करनेके लिये महावीर प्रभुने बारह वर्ष भ्रमण नहीं किया, मुक्ति प्राप्त करनेका पथ उन्हें जन्मसे ही ज्ञात था, बल्कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करनेके हेतु व अपने पूर्व संचित कर्मों का नाश करनेके लिये बारह वर्ष उन्होंने घोर तपस्या और आत्म-चिंतनमें बिताये और प्रायः इन वर्षों में वे मौनावस्थामें ही रहे। उनका यह विश्वास था कि मनुष्य जब तक स्वतः अपूर्ण रहता है तब तक वह संसारी प्राणियोंका पर्याप्त रूपले कल्याण नहीं कर सकता। पूर्ण ज्ञानकी प्राप्तिके हेतु यह समय उन्होंने तप और चिंतनमें व्यतीत किया और कैवल्यज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात उपदेश देना आरंभ किया। आगे लेखक महोदयने लिखा है कि-" इसके पश्चात उन्होंने अपना नाम जैन (स्वयंको मिटाने वाला) रखलिया और कुछ शिष्योंको एकत्रित करके एक नवोन धर्मकी स्थापना की जो उनके नाम पर जैनधर्म कहलाता है।" जिस इतिहास लेखकको जैन शब्दका अर्थ भी मालूम न हो उसके लिये इतिहास लिखना अनधिकार चेष्टाके अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? जैन शब्दका अर्थ " स्वयं को मिटाने वाला" लिखनालेखककी अज्ञानताका द्योतक है। जैन शब्दका अर्थ है-जयतीति जिनः-याने 'जो जय प्राप्त करता है वह जिन' है अर्थात् जिन्होंने इन्द्रियोंको वशमें कर लिया है वे हैं 'जिन' हैं, उनके अनुयायी “जैन" कहलाते हैं। महावीरने कोई नवीन धर्मकी स्थापना नहीं की वरन उन्होंने पूर्व प्रचलित जैनधर्ममें देश, काल और क्षेत्रके अनुसार कुछ सुधार करके उसमें नवजीवनका संचार किया और ब्राह्मणों द्वारा को गयो दयनीय दशासे अहिंसा और स्यावाद रूपी अस्त्रोंसे भारतवर्षका उद्धार किया। आगे चलकर लेखक महोदयने जैनधर्मके तीन मुख्य सिद्धान्तोंको इस तरह लिखा है...दिव्य दृष्टि, सुविचार और सत्कर्म इनके स्थान पर जैनधर्मके तीन मुख्य सिद्धान्त ये हैं...सम्यग् ज्ञान, सम्यगू दर्शन, और सम्यक चारित्र । मोक्ष प्राप्त करने के लिये तप, जप और चिंतनके अतिरिक्त ये तीनों जैन मतानुसार अत्यन्त आवश्यक हैं। ___ आगे आप लिखते हैं कि-"नी मुंह और नाकसे पट्टी बांधे रहते है, " माथुर सा. को ऐसे कितने जैनियोंसे संसर्ग हुआ जिनको उन्होंने मुंह और नाकसे कपडा वांधे रहते देखा है ? श्वेताम्बर व दिगंबर दोनों सम्प्रदायोंमें पट्टो कोई नहीं बांधता; हां, इनमेंसे दो सम्प्रदाय-स्थानकवासी और तेरहपंथो नये अवश्य निकले हुए हैं जो मूर्तिपूजाके विरोधी हैं और मुंह पर पट्टी बांधते हैं-नाक पर नहीं। For Private And Personal Use Only
SR No.521600
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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