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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष ७. “ग्रन्थावली" में अर्घकाण्ड दर्ज है। ८. पीटर्सन की सूचियों में एक दो प्रतियां दर्ज हैं। त्रैलोक्यप्रकाशका कर्ता और रचनाकाल मूल ग्रन्थमें कई स्थानों पर उके रचयिताका नाम देवेन्द्रसरिशिष्य हेम-. प्रभसरि लिखा है, लेकिन उनके समय और गच्छका उल्लेख नहीं मिलता। देवेन्द्र नामके आठ दस और हेमप्रभ नामके तीन चार आचार्य ज्ञात हैं। इनमेंसे त्रैलोक्यप्रकाश का कर्ता कौन था, इस बात का निर्णय नहीं किया जा सकता। तथापि यह ग्रन्थ सं. १५७० से अवश्य पहले रचा गया होगा क्योंकि अम्बालाशहर वाली प्रति इस संवत् की लिपिकृत है । सं. १६४४ में "ताजिक नीलकण्ठी"की रचना हुई । उसके प्रश्नतन्त्रमें त्रैलोक्यप्रकाश का उल्लेख है। हेमप्रभसूरि लिखते हैं कि इस प्रकार के लग्नशास्त्र का म्लेच्छों ने विस्तार किया, पर प्रभु की कृपा से जैनों में भी इस शास्त्रका अस्तित्व बना रहा । इसमें मुथशिल और मचकूल आदि संज्ञाओं का प्रयोग मिलता है, अतः यह ग्रन्थ सं. १५७० से बहुत पहले का न होगा। संभवतः विक्रम की चौदहवीं अथवा पंदरहवीं शताब्दी में लिखा गया हो, जब भारत पर मुसलमानों का काफी प्रभाव पड़ चुका था। यह लेख अम्बाले की प्रति तथा श्रीयुत अगरचन्द नाहटा की प्रति के कुछ पत्र देख कर तय्यार किया गया है। ___मैं इस लेख द्वारा श्वेताम्बर समाज का ध्यान पंजाब के जैन भंडारों की ओर आकर्षित करता हुं। “जैन सत्य प्रकाश'के क्रमांक १०३ में मुनि समुद्रविजय का "पंजाब में जैनधर्म" शीर्षक लेख छपा है उसमें सं. १७०९ के बने पार्श्वनाथस्तवन और सं. १७१० के चित्रपट्ट का वर्णन है जो जंडियालाके भंडारमें सुरक्षित हैं । पंजाब के जैन भंडारों में अनेक अज्ञातपूर्व, अतिप्राचीन, सचित्र प्रतियां विद्यमान हैं जैसा कि पंजाब यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित केवल पांच भंडारों की सूची से विदित होता है । ऐसे बहुतसे और भंडार हैं । समस्त भंडारों की सूची से शासनकी बड़ी सेवा होगी। कृष्णनगर, नेहरुस्ट्रीट, लाहौर. परिशिष्ट त्रैलोक्यप्रकाश के कुछ उद्धरण ६१. आरम्भ श्रीमत्पाश्र्वामिधं देवं केवलशानभास्करम् । वाग्देवी खेचरांश्चापि नत्वा लग्नमहं ब्रुवे ॥१॥ लग्नं देवः प्रभुः स्वामी लग्नं ज्योतिः परं मतम् । लग्नं दीपो महान् लोके लग्नं तत्त्वं दिशन् गुरुः ॥२॥ ४. देखिये इसी लेख का परिशिष्ट % ३. 4 Catalogue of Sanskrit Manuscript in the India Office, London. Vol. V ६. इस लेख का परिशिष्ट ६ १. श्लो. ६; मणित्थताजिक, श्लो, ९ । For Private And Personal Use Only
SR No.521600
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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