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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir m श्रीहेमप्रभसूरि-विरचित त्रैलोक्यप्रकाश HIN. लेखक : श्री. मूलराजजी जैन, एम. ए., एल-एल, बी. . आजीविका चलाने या मान-प्रतिष्ठा पाने के लिये जैन साधुओंको ज्योतिष और वैद्यककी प्रैटिस करना वर्जित है, पर इनके सीखने का निषेध नहीं था । जैन ग्रन्थों में इन विद्याओं से संबन्ध रखनेवाले अनेक पाठ मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि इन ग्रन्थों के रचयिता इन विद्याओंसे भलीभांति परिचित थे । संघरक्षा तथा शासन-उन्नति के लिये पूर्वाचार्योने इन विद्यासे बड़ा चमत्कार दिखलाया है। यतिवर्ग (पूज या गोरजी ) तो धर्मोपदेश के साथ २ ज्योतिष और वैद्यक द्वारा जैन तथा जैनेतर जनता पर बड़ा उपकार करते थे। इन्होंने इन विद्याओं में इतनी निपुणता प्राप्त की थी कि बड़े २ राजा, महाराजा और सेठ इनके भक्त बन गये थे। जैन विद्वानोंने ज्योतिष और वैद्यक पर अनेक ग्रन्थ रचे, जिनमेंसे बहुतसे अबतक विद्यमान हैं । उन्हीं में से एक ज्योतिष ग्रन्थ का यहां पारचय कराया जाता है । यह है त्रलोक्य प्रकाश । इसके नाम से तो प्रतीत होता है कि इसमें त्रिलोकी अर्थात् स्वर्ग, मर्त्यलोक और पाताल का वर्णन होगा, परंतु वास्तव में यह लग्नशास्त्र है, जिसमें ज्योतिष योगों के शुभाशुभ फलों पर विचार किया है और ,मानवजीवन संबन्धी अनेक विषयों का फलादेश बतलाया है। ... किसी समय जैनसंप्रदायमें यह ग्रन्थ काफी प्रचलित रहा होगा, क्योंकि इसकी बहुत सी प्रतियां अब भी यत्र तत्र विद्यमान हैं । जैसे १. पंजाब में अम्बाला शहर के श्वेताम्बर भंडार में । ३ २. लाहौर डी. ए. वी. कालिज की लालचंद लाइ री में ।। ३. दो प्रतियां पाटण भंडाण में ।। ४. बीकानेरनिवासी श्रीयुत अगरचंद नाहटा के भंडार में। ५. दो प्रतियां बड़ोदा गायकवाड ओरियटल इन्स्टिटयूट में । ६. " सी. पी. की सूची' ( कीलहानद्वारा संकलित ) में नं० ३९६ " लग्नशास्त्र" नाम से दर्ज है। १. छिन्नं सरं भोमंतलिक्खं सुविणं लक्खणदंडक्थुविज्ज । अगंवियारं सरस्स विज्जयं जे विजाहिं न जीवइ स भिक्खू ॥ ७ ॥ मंतं मूलं विविहं वेजचिंतं वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ८ ॥ [ उत्तराध्ययन, अध्य. १५ ] २. देखिये “जैनग्रन्थावली " में ज्योतिष और वैद्यक ग्रन्थों को सूची । ३.“A Catalogue of manuscripts in the Panjab Jain Bhandars," Lahore 1939. पंजाब के जैन भंडारों की सूची, ग्रन्थ नं. १११४. ३३ पत्र जिनमें से २४ से २७ तक के चार पत्र नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.521600
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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