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विम-विशेषां ] વિક્રમીય ઘટના
[१६३ जाकर रोता है। बानरने कहा-तेरे मुंहमें मित्रका भला करके आया था इस भलाईके भावसे मैं हंसता था, तूने मुझे कोई हरकत नहीं की जिससे कुदकर जीवन बचा लिया और इस मित्रद्रोही पापात्माके पास आया तब मुझे दुःख हुआ कि हा!!! इस अधमात्माकी कैसी अधोगति होगी, इस कारण मैं रोने लगा। इस बातको सुनकर सिंह चला गया और वानरने राजपुत्रको 'विश्वेमेर' यह शब्द सुनाया। न मालूम इस शब्दमें क्या जादू था, वह पागल बन गया । घोडा जंगली जानवरोंके भयसे भागा और दोडता दोडता राजमहल तक पहुंचा । खाली घोडा देखकर घबडाया हुआ राजा सपरिवार ढूंढते ढूंढते वहां तक पहुंचा, और लडकेको पागल देखकर दुःखी हुआ। उसे घस लाकर अनेक उपचार किये मगर सभी निष्फल गये । तब मंत्रीसे कहा कि यदि मेरे गुरु शारदानंदनको न मरवाया होता तो वे जरूर इस लडकेको अच्छा बनाते । यह बात मंत्रीने अपने गुप्त गृहके अंदर रखे हुए शारदानंदनको कही। शारदानंदन बोला कि महाराजको पास जाकर ऐसा कहो कि मेरी लडकी पडदे पीछे रहकर कुछ ऐसे काव्य सुना देगा जिससे कुंवरका पागलपन दूर हो जायगा । मंत्रीने राजासे ऐसा ही कहा और राजसभामें पडदा बंधवाया गया । मंत्रो पडदेवाली पालखीमें गुरुको दाखिल करता है । राजपुत्र विजयपाल आदि पडदे के पास बैठ जाते हैं । राजाने उसी वत्त हुकम दिया कि हमारे पुत्रका पागलपन दूर करो और वह जैसा पहिले था बैपा बना दो, तब पडदे में रहे हुए शारदानंदनने श्लोक बोलने शरू किये
विश्वासप्रतिपन्नानां, वञ्चने का विदग्धता ।
अङ्कमारुह्य सुप्ताना, हन्तुं किं नाम पौरुषम् ? ॥१॥
अर्थ---विश्वासपात्रको ठगना यह कोई चतुराई नहीं, गोंदमें सोये हुएको मारना यह कोई पुरुषार्थ नहीं है।
सेतुं गत्वा समुद्रस्य, गङ्गासागरसङ्गमे ।
ब्रह्महा मुच्यते पापै-मित्रद्रोही न मुच्यते ॥२॥
अर्थ---समुद्रके सेतु पर जाकर और गंगासागरके संगमको पाकर ब्रह्महत्यावाला भी अपने पापसे मुक्त हो जाता है परन्तु मित्रों के साथ द्रोह करनेवाला पापमुक्त नहीं बनता ।
इन दो श्लोकके सुननेसे बहुत पागलपन नष्ट हुआ, थोडासा ही पागलपन बाकी रहा । इन दो श्लोकोंका अपने जीवनके साथ जो संबंध था वो सब राजपुत्रको सुनाया और सिंह-वानरकी कथा भी सुनाई। उसके बाद राजपुत्रमें रही हुइ थोडी कसरको दूर करने के लिये पडदेमें रहे हुए शारदानंदनने तीसरा श्लोक सुनया ।
मित्रद्रोही कृतघ्नश्च स्तेयी विश्वासघातकः । चत्वारो नरकं यान्ति यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥३॥
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