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१८४ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
मांर १००-१-२ अर्थ-मित्र के साथ द्वेष करनेवाला, कृतघ्न, चोर और विश्वासघाती ये चार नरकमें जाते हैं।
__ अब राजपुत्र स्वस्थ हो गया। राजाने पूछा-हे बाले ! तू नगरमें रहती है, फिर भी बनकी इस परोक्ष बातको कैसे जान सकती है ? तब उसने कहा--मेरे मुखमें सरस्वतीका निवास है इससे जैसे भानुमती रानीके गुप्त स्थलकी तिलककी बात जानी थी ऐसे यह भी जान ली । इस बातको सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने समझ लिया कि मैंने गुरुदेवको रानीकी इजत लूटनेवाला समझ कर जो बुरा हुकम सुनाया था वो मेरी सहन भूल थी।
जैसे-जंगलकी परोक्ष बातको सरस्वतीकी कृपासे जान ली ऐसे ही भानुमतीके तिलकको भी जान सकता है, क्या यह गुरुदेव तो नहीं ? तुरंत पडदा ऊंचा कर दिया और देखा तो गुरुदेव ही निकले । मंत्रीने असली हकीकतसे ज्ञात किया और राजाने मंत्रीको बुद्धि पर आफरीनका पुकार किया।
इस बहुश्रुतकी कथाको सुनकर राजा विक्रमने कोटि दीनारका दान दिया । और कोषाध्यक्षको हुकम दिया कि आज पीछे किसी भी दीन दुःखिको मेरे पास आनेपर १००० का दान देना, मेरेसे बात चीत करे उसको १०००० का और मैं जिसकी वाणी सुनकर खुश होउं उसको १००००० का और आश्चर्य की कथा सुनावे उसको १००००००० दीनारका दान देना । कितनी उदारता ! एक आदमोके साथ किया हुआ वर्ताय हम्मेशका कायदा वन गया । बलीहारि हे ऐमी उदारताकी !
ऐसे अनेक प्रसंगसे भरा हुआ जिसका चरित्र है उसको गुजरात, मालवा, मारवाड, पञ्चाब आदि देशोंको अधमर्ण और उत्तमर्णसे रहित बनाकर अपना संस्त् चलानेमें खर्व निखर्व पाराय॑की संख्यासे पर धन खरचना पड़ा है। परन्तु परोपकारके स्वभावसे इसे ऐसा अखूट खजाना मिल गया था कि चाहे इतना खरच करे खूटे ही नहीं । कारण यह था कि-एक समय अपनी सर्व मिलकत लगाकर एक आदमीने एक सुंदर भवन बनाया। भवनके तैयार होने पर जब वह उसमें सोया, तो रात्रिको 'पडता हूं पडता हूं' ऐसी आवाज कई दफा सूनी। वह घबडाया और बोला हाय !! हाय !! लाखका पानी कर दिया। दूसरे दिन, तीसरे दिन भी ऐसी ही आवाजें आती रहीं तब विक्रमराजाके पास जाकर उसने कहा कि मेरे लाख रुपयोंको पानी हुआ। मैं दूसरेको यह मकान लीलाम करना चाहता हूं, परन्तु कोई मुफ्त भी नहीं लेता, कारण कि मैं मकान को नुकसानीका जिकर कर देता हूं, जिससे कोई लेता नहीं, किसीके साथ धोखा करना ठीक नहीं । बस, पड़नेकी बात सुनकर सभी धबडाते हैं, इस बातसे मैं बडा दुःखी हूं । वणिककी इस न्याय-शीलताको देखकर राजा खुश हुआ
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