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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२] श्री रेन सत्य प्राश [ भां१००-१-२ नहीं रह सकता, इस लिये कलसे सभामें मेरे साथ ही दूसरा सिंहासन तैयार रखना । मंत्रीने कहा-स्वामिनाथ ! यह ठीक नहीं, सभामें उनके साथ बैठनेसे अपकीर्ति होगी। राजाने कहाचाहे ऐसा हो, परन्तु इसके सिवा सभामें इतनी देर बैठनेमें मुझे बड़ा ही रञ्ज होता है । मंत्रीने कहा-ऐसा ही है तो उसकी आबेहूब तसबीर बनाके सभामें रखे, जब आपका जी चाहे देख सकते हैं, यं भी सभामें बातचीत तो कर ही नहीं सकते, तो यह उपाय अच्छा है । राजाने यह बात मान ली । तुरंत ही कुशल कारीगरसे साक्षात् भानुमती देखलो, ऐसा चित्र तैयार किया । जिस राजाके गुरु, वैद्य और मंत्री माठे बोलनेवाले होते हैं उस राजाके धर्मशरीर और खजाना इज्जत आबरुका नाश होता है । इस मंत्रीने राजा की इज्जतका बचाव किया । ___ एक दिन अपने गुरु शारदानंदनसे राजाने कहा कि देखो यह चित्र कैसा बिनकसर है, क्या आप इसमें कोई कसर बता सकते हो? गुरुने कहा कि चित्र तो बहुत उमदा बना है परन्तु उनके गुप्त स्थानमें तिलक है वह नहीं दिखाया गया, बस यही एक कसर है। इस बातको सुनकर कुपित हुए राजाने मंत्रोको कहा कि इसे जानसे मार डालो । मंत्रीने उसको अपने स्थान पर लेजा कर गुप्त रक्खा और राजाको कहला दिया कि मैंने शारदानंदनको मरवा डाला । एक दिन राजसुत विजयपाल अशिक्षित अश्व पर चढकर शिकारको गया । उस अशिक्षित घोडेने उसे बिहड जंगलमें जा पटका । वहां पर एक सिंह दूरसे आता हुवा दिख पडा, राजपुत्रने डरसे वृक्षारोहण किया, जिस पर एक बंदर पहिलेसे बैठा था। उसने उसको भित्रभावसे अपने पास बिठलाया। उसकी आंखमें परिश्रमनी निंद आने लगी तब अपनी गोदमें उसका सिर ले लिया । उसको गाढ निद्रा आ गई । उस समय सिंहने कहा-हे बंदर ! इस नरको मुझे दे दे, तू बच जायगा, और इसको खाकर मैं चला जाउंगा। बंदरने जवाब दिया कि मैं मेरे आश्रितको कभी नहीं दूंगा । थोडी देरमें राजपुत्र जाग उठा और बंदरको निन्द आने लगी, वह राजपुत्रकी गोद में अपना शिर रख के सा गया, तब सिंहने राजपुत्रसे कहा-अय नर ! तू इस वानरको पृटक दे, में इसे खाकर चला जाउंगा। इस वातको सुनकर उस नरने विचार किया कि मैं इसको पटक दूं , यह इसे खा लेगा और चला जायगा, और मैं सीधा घर पहुंच जाउंगा। उसी वख्त विजयपालने वानरको, वह सिंहके मुंह पर पडेऐसे गिराया । वानरकी आंख खुल गई, और अपने को सिंहके मुवमें पडे हुए पाया । तब वानर खिड खिडाकर हँसा । उसकी हंसीसे सिंहको आश्चर्य हुआ और थोडासा मुख खुला, सिंहने न तो उसके शरीर पर पंजा मारा और न ता दाढ दवाई, आश्चर्य ताकतों का यही दशा होती है । तब वानर कूद पडा और पेड पर मित्र मनुष्य के पास जाकर रोने लगा। सिंहने पूछा-अय बानर ! यह क्या बात है ! जब तु मेरे मुंहमें था तब हंसता था और भित्रके पाल For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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