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विभ-विशेषां ] વૈકીય ઘટના
[१८१ एक वख्त राजा सभामें बैठा है । उस वख्त एक दीनात्मा वहां पर आया, मगर उसका मुख मंगनेके लिये खुला नहीं तब महाराजने सोचा कि
" गर्भङ्गः स्वरो दीनो, गात्रवेदो महाभयं ।
मरणे यानि चिहानि, तानि चिह्नानि याचके ॥ १ ॥
अर्थात्-गतिका भङ्ग, स्वरमें दीनता, शरीर में खेद, और महाभय आदि जो चिह्न मरण समय पर होते हैं वे सब चिह्न याचकमें भी दिखे जाते हैं। इस लिये इसके मंगनेके सिवाय भी इसे कुछ देना चाहिये । बस, तुरंत हि १००० दीनार-गीनीओंका दान दिया। फिर भी वह कुछ नहीं बोला तब विक्रमने पूछा “क्यारे ! कुछ कम रहा ? अबी भी नहीं बोलता, तब उसने कहा कि
लज्जा वारेइ महं, असंपया भणइ मग्गि रे मग्गि ।
दिन्नं माणकवाडं, देहीति न निमाया वाणी ॥ १ ॥
अर्थ-लज्जा मुजको नहीं बोलने देती, दारिद्रय कहता है कि तू मंग, विचमें मान रूप किवाड लग जाता है इस लिये 'दो' ऐसी वाणो नहीं निकलती है।
इस बात को सुनकर १०००० दीनार दिये गये । और फिर कहा कुछ चमत्कारी कृति सुनाओ, तब बोला कि--
अनिस्सरन्तीमपि देहगर्भात् , कीर्ति परेषामसती वदन्ति । स्वैरं भ्रमन्तीमपि च त्रिलोक्या, त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतीन्तु ।
अर्थः-है राजन् ! दूसरोंकी कार्ति उनके शरीरसे भी चाहर नहीं निकलती फिर भी वह असती कहलाता है, और आपकी कोर्ति तीन लो में स्वच्छंद हो कर फिरती है फिर भी वह सतो है।
इस आश्चर्यकारी सदुक्तिसे राजाने उसको १००००० दीनार-सोनये दीये । और कहा कि फिर कुछ सुनाओ । तब याचकने एक बहुश्रुतका कथानक सुनाया।
जा नृपति कुलीनों का संग्रह करता है वह कभी भी विक्रयाको नहीं प्राप्त होता है जैसे कि-विशाला नामकी नगरीमें नन्द नामका राजा था, उसकी भानुमती नामकी रानी थी और विजयपाल नामका लडका था । सर्व नीतिमें विशारद बहुश्रुत नामका मंत्री था, और अनेक शास्त्र के रहस्य को जाननेवाला शारदानंदन नामका उसका गुरु था। एक दिन राजाने मंत्रीसे कहा कि मैं भानुमताके सहवास में ही रहना चाहता हूं। एक क्षण भी उसके सिवा
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