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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1601 श्री सत्य प्र भार १००-१-२ मागनेका जिक्र था। यह सत्त्वशाली विक्रम को कैसे रुचे ? भट्टमात्र वगिक था इसीलये,विक्रम जो चुपचाप रोहणाचल पर बैठा था, आर पाथेय न होने पर भी बेफिक आर मांगनीसे विमुख था-उसको रुलानेके लिये थाडी देरके लिये गांवमें गया और वापिस आकर राजाका सुनाने लगा कि आज तुम्हारी माके मरजानेका समाचार उपलब्ध हुआ है। इस बात को सुनकर मातृभक्त विक्रमने हाय मा! हाय बाप ! करते हुए अपना शिर पहाडसे टकराया । उसी वख्त रोहणाचलके अधिष्ठायकने उसके हाथमें रत्न धर दिया । भट्टमात्रको बडी खुशी हुई। उसने सोचा कि ठीक हुआ । उस रीतिसे भी इसके हाथमें सवा लक्षका रत्न आ गया, अब हमारी मुसाफरी बडे सुखसे कटेगी। फिर विक्रमको शान्त करनेके लिये कहा कि मैंने युही गप लगाई थी। आपकी मा कुशल है, मात्र इस समाचारसे आपमें दीनता पैदा कराके आपको रत्नकी प्राप्ति करानी थी। जब यह समाचार विक्रमको ज्ञात हुआ तब उसने रत्नको फेंक दिया । कितना सत्त्व ! और पर्वतको धिक्कार देते हुए कहा कि जो ऐसी दीनता कराकर दान देने वाले है उन पर लानत है, सो बार लानत है। मुझे ऐसा दान पसंद नहीं। ऐसा कहकर वह वहांसे चल पडा । ऐसे ही श्रृंगालके शब्दसे-नदी किनारे पर अनेक आभूषणोंसे लदा हुआ मुडदा है-ऐसी, पशु शब्दवेदी भट्टमात्रने आगाही दो, उस वल्त भी उसने धनकी उपेक्षा कर दी। ऐसे ठिकाने २ पर अपने सत्त्वका परिचय दिखलाता हुआ विक्रम घूम रहा है। उधर भर्तृहरिको अपनी स्त्रीकी महावतके साथकी खानाखराबी देखकर वैराग्य आता है और वह दुनियाको छोड देता है। उसके बाद शून्य राजगद्दी पर आगियावैताल अधिष्ठित हो जाता है और जो गद्दी पर बैठता है उसको मार डालता है। इस बातका पता जब विक्रमको चलता है तब वह अपने राज्यको संभाल्लने को आता है। प्रथम अवधूतके वेषमें ही राज्यगद्दी स्वीकारता है और आगियाको वश कर लेता है। इन बातों में भी कमसे कम १० वर्ष चले गये होंगे । इस हिसाबसे ३० वर्षकी वयमें गद्दी पर आवे तब वीरनिर्वाण सं.लगभग ४५० हो जावे। उसके बाद राज्यका सूर्य मध्याह्न पहुंचने में भी २० वर्षकी आवश्यकता जान पडती है। इस तरह प्रभु महावीरके संवतसे ४७० वर्षके पीछे विक्रमसंवत् जारी हुआ, ऐसा अनुमान होता है। जिस भाग्यशालीकी यशोगाथा २००० वर्ष बीत जाने पर भी संवत्सरकी स्मृतिके रूप में ज्यों की त्यों दुनियाके मुखसे गाई जती है उसका कारण उसकी उदारता है, जिसके अनेक उदाहरण इनके चरित्रसे मालूम होते हैं, जैसे कि For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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