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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैक्रमीय घटना लेखक : पूज्य आचार्य महाराज श्री विजयलब्धिसूरीश्वरजी, वडाली. - अय कालचक्र ! तेरी गति अजब है ! तूने गज़बनाक तबदिलिएं बताई हैं। आज है वह कल नहीं, और कल है वह परसो नहीं, क्षण क्षणमें तू बदलता है। इसी लिये प्रभुसिद्धान्त, तेरे स्कन्ध और देशको नहीं मानता है, मात्र प्रदेश रूप ही तू है। परन्तु एक प्रदेशात्मक तूने सारी दुनियाको हिला दी है । जगतमें तूने अनन्त भाव उत्पन्न किये हैं,कर्ता है और करेगा। दुनियाके अ य चक्र, कोई तेल, कोई हवा, कोई काठ और कोई कोयले आदिका सहारा मांगते हैं, परन्तु तू तो एक ऐसा चक है कि जिसे किसी चीज़की दरकार नहीं। तू किसी किसी वख्त ऐसे भो पुरुष उत्पन्न करता है कि वे तेरे मापकयन्त्र बन जाते हैं। जैसे कि इस काल के सबसे श्रेष्ठ मापकयन्त्र आला और निराला वीतराग प्रभु महावीर महाराजा काये, जिनके निर्वाणसंशत् को आज २४७० वर्ष हो चुके हैं । इससे प्राचीन किसोका संवत् जारी हो ऐसा हमारे खयालमें नहीं है। ____ आज हमारी समिति की औरसे श्री श्रमण संघको आज्ञानुसार 'श्री जैन सत्य प्रकाश' नामका मासिक प्रकाशित हो रहा है, उसका यह सौवा अंक जिस पुष्यशाली कारुणिक नृपति विक्रमकी ऐतिहासिक स्मृतिके रूपसे प्रकट होता है वह सत्वशाली विक्रम भी श्री महावीरके बादका गत कालका मापकयन्त्र है, क्योंकि प्रभु महावीरके निर्वाणके ४७० वर्ष बीतने पर राजा विक्रमका संवत् जारी हुआ है। राजा विक्रमको १०० वर्षकी उम्र थी और यह विशेषांक भी १०० वा निकलता है यह भी एक घटनाका सुमेल ही है। प्रभु महावीरके निर्वाणसे करीब ४२० वर्ष के बाद इस राजाका मालवदेशकी उज्जैनी नगरीमें गंवर्वसेन राजाकी श्रीमती नामकी रानीसे जन्म हुआ, ऐसा अनुमान हो सकता है । क्योंकि गंधर्वके स्वर्गस्थ होनेके बाद विक्रमका सौतिला बड़ा भाई, जो माता धीमतीसे उत्पन्न हुआ था, भर्तृहरि तख्तनशीन हुआ है, उसकी तरफसे अपमानित होकर विक्रम केवल खड्गसखा बनकर देशान्तरको स्वीकारता है। कमसे कम उस बख्त १८-२० वर्षकी उम्र होना संभवित है । गहमात्रके मिलजाने पर कई स्थानों पर भ्रमण किया है। एक वख्त एक गामके निकट रोहणा वल पर्वतका नाम सुना और वहां जाकर रत्नप्राप्ति के लिये उसका चित्त लालायित हुआ। विक्रम वहां गया, परन्तु रत्नप्रातिको विधि उसे पसंद नं आई । विधिमें दानतासे रोते पिटते विलपते हुए हाय मा ! हाय बाप ! के पुकारपूर्वक रत्न For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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