SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ ક્રમાંક ૧૦૦–૧–ર भाषामें नरपतिरचित पंचदंडवार्ता (सं. १५६०) एवं मधुसूदन व्यासकृत हंसावली. चरित्र (सं. १६५४) फार्वस सभासे प्रकाशित है। गुर्जरके प्रसिद्ध कवि सामलभट्ट (सं. १७७९-७०) ने विक्रमकी पंचदंड-सिंहासनबत्तीसी कथाओंको लेकर बहुत सरस साहित्यका निर्माण किया है । पर इस भाषामें अधिकतर साहित्य जैनोंका ही है, जिसका परिचय इस लेखमें कराया जाता है। हिन्दी साहित्यमें वेतालपचीसी एवं सिंहासनबत्तीसीकी कथाओं पर कई कवियों के ग्रंथोंका पता चला है, जैसे १ वेतालपचीसी-१ गंगाधर (विक्रमविलास सं. १७३९), २ भवानीशंकर (सं. १८७१), ३ देवीदत्त (सं. १८१२), ४ शंभुनाथ त्रिपाठी (सं. १८०९), ५ भवानीसहाय, ६ सूरत मिन (उ. हि. खोज रिपोर्ट), ७ लल्लुलाटन (गद्य), ८ भोलानाथ चौब (विक्रमविलाल-पद्य) (पंजर संपादित कथासरित्सागरका परिशिष्ट)। इनके अतिरिक्त दो ग्रन्थ मेरी खोजमें नये मिले हैं-१ प्रहलादरचित सं. १६६१ भा. व. ८ (श्री पूज्यजो भः), २ अपूर्ण हमारे संग्रहमें । २ सिंहासन बत्तीसी-४ गंगाराम, २ परमसुख, ३ कृष्णदास, ४ मेघराज प्रधान, काजिमअली (सं. १८०१), ६ लल्लुलाटन । राजस्थानी भाषामें कवि हालूरचित पद्यमय वेतालपचीसी (पद्य ७७३ पत्र १४ से १६ वर्धमान भंडार) एवं विक्रमपरकायाप्रवेश विप्रयसतारचित (पद्य ३२१ पत्र ७ गोविंद पुस्तकालय ) एवं गद्य राजस्थानी बीकानेरनरेश अनुपसिंहजीके लिये रचित वेतालपचीसी, सिंहासनवत्तीसीके अतिरिक्त उक्त नामवाले अन्य गद्य अनुवाद एवं पंचदंड, चोवोली (प्र. सस्ता साहित्य मंडल देहली) और शनिकथा आदि साहित्य उपलब्ध है। यद्यपि विक्रमविषयक जैनेतर साहित्यकी कमी नहीं है, फिर भी प्राचीनता एवं विपुलतामें विक्रम विषयक जैन साहित्य भारतीय समय साहित्यसे बाजी मारलेता है । जब कि भारतीय विविध भाषाओंके एतविषयक प्राचीन ग्रंथ सब मिलाकर ५० से कम होंगे, अकेले जैन विद्वानोंने ५५ ग्रन्थ रचकर जो गोरच प्राप्त किया है वह अत्यंत श्लाघनीय एवं उल्लेखनीय प्रयत्न है। तेरहवीं शताब्दीके पश्चात् विक्रम विषयक जैन साहित्यका निर्माण पारंभ होता है, उन सबने विक्रमादित्यके साथ सिद्धसेन दिवाकर नामक जैन विद्वानके संबंधका उल्लेख पाया जाता है । सिद्धसेन दिवाकरका समय विक्रमकी पांचवीं शताब्दी है, अतः वे उल्लेख द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य सम्बंधी प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार अन्य कई उल्लेख भी विकमादित्य नाम साम्य रखनेवाले २-३ विक्रमादित्यके समिश्रण हो गये मालूम देते हैं । खेद है कि-हमारे विद्वानोंने विक्रमादित्यके कथारूप विशाल साहित्य पर गंभीर आलोचनात्मक दृष्टि नहीं डाली, अन्यथा कई नवीन तथ्य प्रकाशमें आनेकी संभावना है। मेरे नन मतानुसार पोछली अनेक कथाओंमें थोड़ा-बहुत ऐतिहासिक तथ्य अवश्य है। ८ पंजावकी खोज रीपोर्ट (१९२२-२४) के पु. ४७ में इसका रचनासमय १७६१ बतलायो है, पर वह गलत है। १ सन्मतिप्रकरण-प्रस्तावना एवं प्रभावकचरित्रमें मु. कल्याणविजयजीका पर्वालोचन For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy