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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विक्रमादित्य सम्बंधी जैन साहित्य लेखकः----श्रीयुत अगरवंदजी नाहटा, बीकानेर भारतवर्षके इतिहासमें महान् प्रतापी अक्षुण्ण कीर्तिशाली सम्राट विक्रमादित्यका स्थान अजोड़ है। उनके द्वारा प्रवर्तित विक्रम नामक संवत्सर शताब्दियोंसे सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त है । विक्रमादित्यकी कथाएं भारतके कोने कोने में प्रसिद्ध हैं, पर खेद है कि विक्रमादित्यको कथाएं और संवत्सरकी जितनी अधिक प्रसिद्धि है, उनके विशुद्ध इतिहासकी जानकारी उतनी ही अन्धकारमय है । कुछ समय पूर्व तो ऐतिहासिक विद्वानों को यहां तक संदेह हो गया था, और कई अंशोंमें अबतक भी है, कि विक्रमसंवत्सरका प्रवर्तक हाकारि विक्रमादित्य नामका राजा इ. स. पूर्व ५७ में हुआ भी था या नहीं। पर हर्पकी बात है कि अब यह मत अनेक नवीन अनुसन्धानों द्वारा शिथिल हो गया है । इतने पर भी यह समस्या भलीभाँति सुलझ नहीं पाई है और अब भी यह प्रश्न विवादास्पद रूपमें उपस्थित है। स्वर्गीय पुरातत्त्वविद् श्रीकाशीप्रसाद जायसवालके मतानुसार ईस्वीपूर्व ५७ में शकारि गौतमीपुत्र सातकर्णीने नहपाग आदि शकराजाओंका उन्मूलन कर विक्रमादित्यके पदसे प्रसिद्धि प्राप्त की। और इस मतका समर्थन श्रीयुक्त जयचंद्र विद्यालंकार आदि विद्वानोंने भी किया है । जैन परम्पराके अनुसार इस समय चलमित्र नामक राजाने शकोंको हटा कर उज्जयिनी पर अधिकार किया था। इसके पूर्व इतिहास-शकों के आगमन-गर्दभिलके उच्छेदन--का विशद वर्णन कालकाचार्य सम्बन्धी उल्लेखों एवं कथाओं में पाया जाता है। जैन पुरातत्त्वविद् मुनि कल्याणविजयजीने अपने “वीरनिर्वाणसंवत् और जैन कालगणना"४ नामक निबन्धमें इस घटनाका संक्षिप्त विवरण दिया है। और बलमित्रको विक्रमादित्य सिच किया है। . भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ. ७८५ और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पृ. ३९ । २ सन १९१४ में पटनाके अंग्रेजी दैनिक एक्सप्रेस में प्रकाशित प्राह्मिन एम्पायर' शीर्षक लेख और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यकी प्रस्तावना । ३ भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ. १३ से ७८८ । ८ नागरीप्रचारिणीपत्रिका भाग १० अंक ४ ।। ५ इस घटनाका कुछ विस्तारसे वर्णन मुनि कल्याणविजयजीने अपने 'आर्ग कालक' नामक लेखमें किया है, जो कि द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थके पृ. ९८ से ११९ में छपा है। ६ जैन परम्पराकी कालिकाचार्य कथाकी ऐतिहासिकताको अब विद्वानोंने स्वीकार किया है, जैसे-(१) श्रीयुत गंगाप्रसाद महेता एम. ए. 'चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य' ग्रन्थक पृ. ३९ में लिखते हैं"...इसमें कुछ सन्देह नहीं कि इस कथानकका आधार ऐतिहासिक है” । (२) पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. स्टेने कोनोने खरोष्ट्रीलेख कोर्पस इ. इन्डिकेरम् जिल्द २ भाग १ पृ. २५-२७ में लिखा है कि-" इस जैन कथा पर अविश्वास करनेका लेश भी कारण मुझे नहीं प्रतीत होता । For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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