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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ } શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [भा १००-१-२ संप्रति विक्रमादित्यः शालिवाहनवाग्भटौ। पादलिताऽऽम्रदत्तश्च, इत्यस्योद्धारकारकाः ॥ जैन साहित्यमें ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जिनमें कहा गया है कि गर्दभिल्लवंशी अवन्तीपति शकारि राजा विक्रमादित्य तथा उसके मित्र आन्ध्रपति हाल-शालिवाहनने साथ मिलकर जैनाचार्य पारलिप्तरि, नागार्जुन और आर्य खपुटाचार्यकी विद्यमानतामें शत्रुजयतीर्थ पर कुछ धार्मिक कार्य कराये। कहाजाता है कि एकबार तीर्थका जीर्णोद्धार और दूसरी बार मन्दिर पर ध्वजारोहण कराया, जीर्णोद्वारके समय महुवा-मधुवंति (सौराष्ट्र)के मूल निवासी एवं व्यापारार्थ अरबस्तान तक जाकर अपार लक्ष्मी प्राप्त करनेवाले सेठ जावडशाहने साथदिया था। शत्रुञ्जय माहात्म्यमें जावडशाह द्वारा किये गये उद्धारका विस्तृत वर्णन दिया है। २१ जैन साहित्यग्रन्थों से प्रतीत होता है कि श्रीकालकसूरि, और श्रीसिद्धसेन दिवाकरके अतिरिक्त पादलितसूरि, नागार्जुन और आर्य खपुटाचार्य ये प्रखर विद्वान् राजा विक्रमादित्यके समकालीन थे। यह भी कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्यकी सभामें नवरत्न (नौ बड़े बड़े प्रसिद्ध विद्वान् ) रहते थे, राजा विक्रमादित्य उनका आश्रयदाता था। उनके नाम ये हैं-१. प्रसिद्ध कवि और अनेक कायके रचयिता श्री कालिदास, २. प्राकृत व्याकरणके कर्ता वररुचि, ३. अमरकोषके रचयिता अमरसिंह, ४. बृहत्संहिताज्योतिषग्रन्थके निर्माता वराहमिहिर, ५. धन्वतरि, ६. क्षपणक, ७. वेतालभट्ट, ८ घटकपर और ९ शंकु । परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे इन सब विद्वानोंका एक समयमें होता सिद्ध नहीं होता इससे लोग इसे कल्पित मानते हैं। विक्रमादित्य द्वारा निर्माण की गई एक चिरस्मरणीय एवं दर्शनीय कृति उज्जैनकी वेधशाला है, जो भूगोल एवं ज्योतिषशास्त्रके विद्वानोंके लिये विशेष उपयोगी है। उनकी इस कृतिके लिये भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान् चिरकृतज्ञ रहेंगे। विक्रमादित्यने अपने नामका कोई मुद्राप्रसार किया था या नहीं यह अभी अन्धकारमें है। विक्रमादित्यका कोई सिक्का अभी तक प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु इस सम्बन्धमें डाक्टर टी. एल. शाहने प्राचीन भारतवर्ष भा. ४ में विचार प्रदर्शित करते हुए जो कल्पना की २१ विक्रमराजा द्वारा निजसे कियेगये उद्धारका यद्यपि कोई ऐतिहासिक प्रमाण दृष्टिगत नहीं होता, परन्तु भावडशाको विक्रमादित्यने प्रसन्नतापूर्वक मधुमावती (महुवा) आदि १२ गाँव दिये । उस समृद्धिसे उसके पुत्र जावडको शत्रुञ्जय उद्धारका सद्भाग्य प्राप्त हुआ, इसलिये उद्धारकके अनुमोदकके तौर पर एवं शत्रुञ्जयकी सीमा पर उस समय विक्रमादित्यका राज्य होनेसे उसे अन्तर्गत उद्धारक मान लिया हो यह संभव है ।-शत्रुजयप्रकाश. For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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